रविवार, 24 मई 2009

श्रीलंका के इतिहास में जश्न

श्रीलंका सेना ने देश के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया है। करीब ३० सालों में तमिल छापामारों का दंश झेल रहे देश को मुक्ति के राह पर ला खड़ा किया है। आज श्रीलंका एक और आजादी का जश्न मना रहा है मगर इसे इत्तेफाक ही कहा जाएगा कि श्रीलंका के लिए यह सपना भारत के जिस पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी देखा था, उसकी भी २१ मई को भारत में पुण्यतिथि मनाई जा रही है। राजीव गांधी को भी श्रीलंका में शांति सेना भेजने से नाराज तमिल छापामारों के आत्मघाती दस्ते ने श्रीपेरंबदूर में विस्फोट करके २१ मई को मार डाला था। जश्न में डूबे श्रीलंकावासियों को भारतीय सेना का आभार जताने के साथ और राजीव गांधी को श्रद्धांजलि भी देनी चाहिए। जब भी श्रीलंका की मुक्ति का यह इतिहास लिखा जाएगा तब इतिहास के पन्नों में श्रीलंका में अमन के लिए अपनी जान कुर्बान करने वाने शांति सेना के जांबाजों और राजीव गांधी को भी दर्ज करना होगा। श्रीलंका की तमिल समस्या और उसके जातीय इतिहास की भारत वह कड़ी है जिसके बिना वहां से तमिल छापामारों का सफाया संभव नहीं था। श्रीलंका अब जिस मुहाने पर खड़ा है वहां से भी भारत की मदद के वगैर अमन की राह आसान नहीं होगी। इसकी एक वजह यही है अपनी जाति या संस्कृति के लिए लड़ने वाले विद्रोही अपने समाज के लिए शहीद और आदर्श होते हैं। इसी लिए शायद श्रीलंका में सारी तमिल जनता मानने को तैयार नहीं कि प्रभाकरण मारा गया है। यह तो वक्त बताएगा कि सच क्या है मगर यह ऐतिहासिक हकीकत है कि सद्दाम को खलनायक बनाकर अमेरिका ने इसका वजूद मिटा डाला मगर उसके चाहने वालों के जेहन में वह जिस तरह आज भी जिंदा है उसी तरह प्रभाकरण भी तमिलों के दिलों में बसा हुआ है। वह श्रीलंका में तमिलों पर अत्याचाक के खिलाफ लड़ रहा था।
यह अलग बात है कि इसके लिए उसने उग्रवाद का रास्ता अपनाया, जो कि गलत था और तमिलों को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया है। अब श्रीलंका के लिए अमन की अगली लड़ाई भी इतिहास वह दौर साबित होगा जिसमें फिर श्रीलंका को एक और राजीव गांधी की जरूरत पड़ेगी। और तमिलों को भी श्रीलंका में अपनी राह हथियार से नहीं बल्कि राजनीतिक समाधान के जरिए लड़नी होगी। श्रीलंका सरकार और वहां की तमिल जनता दोनों को कोशिश करनी होगी कि अब और किसी प्रभाकरण को हथियार उठाने के लिए मजबूर न होना पड़े।
आइए श्रीलंका के इतिहास में झांकते हैं कि आखिर कैसे प्रभाकरण ने हथियार उठा लिया और श्रीलंका एक भयानक जाती लड़ाई के दहाने पर जा बैठा। इस क्रम में कई जगहों से संकलित सामग्री का आप भी अवलोकन करें। तस्वीरें और कुछ सामग्री विकीपीडिया, गूगल, बीबीसी व अन्य जगहों से साभार लीश्रीलंका सेना ने देश के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया है। करीब ३० सालों में तमिल छापामारों का दंश झेल रहे देश को मुक्ति के राह पर ला खड़ा किया है। आज श्रीलंका एक और आजादी का जश्न मना रहा है मगर इसे इत्तेफाक ही कहा जाएगा कि श्रीलंका के लिए यह सपना भारत के जिस पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी देखा था, उसकी भी २१ मई को भारत में पुण्यतिथि मनाई जा रही है। राजीव गांधी को भी श्रीलंका में शांति सेना भेजने से नाराज तमिल छापामारों के आत्मघाती दस्ते ने श्रीपेरंबदूर में विस्फोट करके २१ मई को मार डाला था। जश्न में डूबे श्रीलंकावासियों को भारतीय सेना का आभार जताने के साथ और राजीव गांधी को श्रद्धांजलि भी देनी चाहिए। जब भी श्रीलंका की मुक्ति का यह इतिहास लिखा जाएगा तब इतिहास के पन्नों में श्रीलंका में अमन के लिए अपनी जान कुर्बान करने वाने शांति सेना के जांबाजों और राजीव गांधी को भी दर्ज करना होगा। श्रीलंका की तमिल समस्या और उसके जातीय इतिहास की भारत वह कड़ी है जिसके बिना वहां से तमिल छापामारों का सफाया संभव नहीं था। श्रीलंका अब जिस मुहाने पर खड़ा है वहां से भी भारत की मदद के वगैर अमन की राह आसान नहीं होगी। इसकी एक वजह यही है अपनी जाति या संस्कृति के लिए लड़ने वाले विद्रोही अपने समाज के लिए शहीद और आदर्श होते हैं। इसी लिए शायद श्रीलंका में सारी तमिल जनता मानने को तैयार नहीं कि प्रभाकरण मारा गया है। यह तो वक्त बताएगा कि सच क्या है मगर यह ऐतिहासिक हकीकत है कि सद्दाम को खलनायक बनाकर अमेरिका ने इसका वजूद मिटा डाला मगर उसके चाहने वालों के जेहन में वह जिस तरह आज भी जिंदा है उसी तरह प्रभाकरण भी तमिलों के दिलों में बसा हुआ है। वह श्रीलंका में तमिलों पर अत्याचाक के खिलाफ लड़ रहा था। यह अलग बात है कि इसके लिए उसने उग्रवाद का रास्ता अपनाया, जो कि गलत था और तमिलों को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया है। अब श्रीलंका के लिए अमन की अगली लड़ाई भी इतिहास वह दौर साबित होगा जिसमें फिर श्रीलंका को एक और राजीव गांधी की जरूरत पड़ेगी। और तमिलों को भी श्रीलंका में अपनी राह हथियार से नहीं बल्कि राजनीतिक समाधान के जरिए लड़नी होगी। श्रीलंका सरकार और वहां की तमिल जनता दोनों को कोशिश करनी होगी कि अब और किसी प्रभाकरण को हथियार उठाने के लिए मजबूर न होना पड़े।

अंको और गिनती की कहानी!

कभी आपने सोचा भी है कि गिनती की शुरुआत कब, क्यों और कैसे हुई? मानव आरंभ से ही सामाजिक प्राणी रहा है। प्रगैतिहासिक काल में जब मानव गुफाओं में रहा करता था तब भी उनके समूह हुआ करते थे। जब तक ये समूह छोटे रहे, किसी प्रकार की गिनती की आवश्यकता नहीं थी। दिन भर भोजन की टोह में इधर-उधर भटकने के बाद जब समूह के सदस्य वापस इकट्ठे होते थे तो समूह के सरदार को आभास हो जाया करता था कि पूरे सदस्य आ गये हैं या कोई सदस्य कम है।

किन्तु जब समूह के सदस्यों की संख्या में वृद्धि होने लगी तो मानवीय आभास से काम चलाना मुश्किल हो गया और उन्हें गिनती की आवश्यकता हुई। सर्वप्रथम मनुष्यों ने अपने हाथों की उंगलियों को गिनती का आधार बनाया। बाद में सदस्यों की संख्या में और वृद्धि होने पर पैरो की उंगलियों को भी गिनती में शामिल कर लिया। संख्या में निरंतर वृद्धि के कारण उन्हें अंकों तथा संख्याओं के लिये संकेत बनाने पड़े।

आज भी उस प्रकार के संकेतों का प्रयोग किया जाता है जैसे कि I, II...., V...., X...., L...., C...., आदि। अब यदि देखें तो इन संकेतों का आधार पाँच का अंक है जैसे V, X, L, C। मनुष्य के एक हाथ में पाँच उंगलियाँ होने के कारण ही पाँच को अंको और संख्याओं का आधार बनाया गया। शून्य की जानकारी न होने के कारण इन्हीं संकेतों के द्वारा हजारों-लाखों वर्षों तक गणितीय गणना की जाती रही है। अब जरा सोचिये कितनी कठिन और समयखाऊ रहती रही होंगी वे गणनायें। यकीन नहीं आता हो तो आप ही जरा नीचे के प्रश्न को हल करके देखेः

जोड़ें -

III
VII
IX
I
+ LXIV



यह तो हुआ जोड़ का एक साधारण सा सवाल। जब जोड़ का ये साधारण सवाल इतना कठिन सा लग रहा है तो गुणा भाग आदि के सवाल कितने कठिन तथा समयखाऊ रहे होंगे। फेर भी हजारों लाखों वर्षों तक इन्हीं संकेतों के सहारे गणनायें की जाती रही है।

फिर शून्य का अविष्कार हुआ। हमारे लिये जहाँ यह गौरव की बात है कि शून्य भारत की ही देन है वहीं यह क्षोभ की बात है कि हम आज तक उस महान गणितज्ञ का नाम भी नहीं जानते जिन्होंने शून्य का अविष्कार किया। कहा जाता है कि शून्य का अविष्कार नवीं शताब्दी में हुआ था। उस काल में हिन्दु धर्म के मुख्य रूप से तीन सम्प्रदाय, वैष्णव, शैव और शाक्त, हुआ करते थे। इन तीनों सम्प्रदायों के अनुयायी स्वयं के सम्प्रदाय को महान तथा अन्य सम्प्रदायों को तुच्छ मानकर आपस में झगड़ा किया करते थे। उसी समय जैन सम्प्रदाय का जन्म हुआ। इस नये प्रतियोगी को नीचा दिखाने के लिये पहले के तीनों सम्प्रदाय एक हो गये। अनुमान है कि शून्य का आविष्कार करने वाला गणितज्ञ जैन सम्प्रदाय का अनुयायी था और इसीलिये उनके नाम को कभी भी आगे आने नहीं दिया गया।

लोगों को शून्य का प्रयोग करके गणितीय गणना करना बहुत सरल लगा और शून्य का प्रयोग जोरों से किया जाने लगा। किन्तु शासक के जैन सम्प्रदाय विरोधी होने के कारण शून्य के प्रयोग को राजकीय रूप से मान्यता नहीं दी गई। व्यापारियों को अपने हिसाब-किताब पुरानी पद्धति में ही रखने के राजकीय आदेश दिये गये। अतः एक परपाटी यह चल गई कि कच्चे में शून्य का प्रयोग करके हिसाब किया जाये और पक्के में पुरानी पद्धति से लिखा जाये। चूँकि लिखने का काम भोज पत्र पर हुआ करता था अतः भोज पत्र की खपत कम करने के लिये कच्चे में हिसाब करने के लिये जमीन के एक टुकड़े को लिप पोत कर चिकना बना दिया जाता था और उस पर महीन राख की परत बिछा दी जाती थी। उंगलियों से लिखकर हिसाब किया जाता था। पक्के में पुरानी पद्धति में उतार लेने के बाद जमीन में बनाई गई राख की स्लेट को फिर से लिखने लायक बना लिया जाता था।

उस काल में व्यापार करने के लिये भारत में अरब देशों के व्यापारी आया करते थे। शून्य का प्रयोग करके गणना करने की सरलता ने उन्हें अत्यधिक प्रभावित किया और वे हमारे अंको को अपने देश ले गये। चूँकि राख को अरबी भाषा में गुबार कहा जाता है, उन्होंने यहाँ से ले जाये गये अंको का नाम गुबार अंक रखा। गुबार अंक अरब देशों से मिश्र पहुँच गया। इस प्रकार आगे बढते-बढते हमारे ये अंक अलग-अलग नामों तथा संकेतों के साथ पूरे यूरोप में पहुँच गये। कालान्तर में जब अंग्रेजों ने भारत के शासन को हथिया लिया, तब हमारे यही अंक अंग्रेजी अंको के रूप में हमारे सामने आये।

बाद में गणितज्ञों के शोध कार्यों से सिद्ध हो गया कि अंग्रेजी अंक वास्तव में अंग्रेजी न होकर भारतीय है।