मंगलवार, 18 नवंबर 2008

हिन्दी पत्रकारिता

आज जब हम हिन्दी पत्रकारिता की बात करते हैं तो यह जानकर आश्चर्य होता है कि शुरूआती दौर में यह ध्वज उन क्षेत्रों में लहराया गया था जिन्हें आज अहिन्दी भाषी कहा जाता है। कोलकाता का विश्वामित्र ऐसा पहला ध्वज वाहक था। उत्तर प्रदेश, बिहार और उन दिनों के सी.पी. बरार में भी अनेक हिन्दी अखबारों की शुरूआत हुई थी। लाहौर तो हिन्दी अखबारों का एक प्रकार से गढ बन गया था। इसका एक कारण शायद आर्यसमाज का प्रभाव भी रहा होगा। परंतु इन सभी अखबारों का कार्य क्षेत्र सीमित था या तो अपने प्रदेश तक या फिर कुछ जिलों तक। अंग्रेजी में जो अखबार उन दिनों निकलनी शुरू हुई उनको सरकारी इमदाद प्राप्त होती थी। वैसे भी यह अखबारें शासकों की भाषा में निकलती थीं इसलिए इनका रूतबा और रूआब जरूरत से ज्यादा था। चैन्नई का हिन्दू, कोलकाता का स्टेटसमैन मुम्बई का टाईम्स आफ इंडिया, लखनऊ का नेशनल हेराल्ड और पायोनियर, दिल्ली का हिन्दुस्तान टाईम्स और बाद में इंडियन एक्सप्रेस भी। ये सभी अखबार प्रभाव की दृष्टि से तो शायद इतने महत्वपूर्ण नहीं थे परंतु शासको की भाषा में होने के कारण इन अखबारों को राष्ट्रीय प्रेस का रूतबा प्रदान किया गया। जाहिर है यदि अंग्रेजी भाषा के अखबार राष्ट्रीय हैं तो हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के अखबार क्षेत्रीय ही कहलाएंगे। प्रभाव तो अंग्रजी अखबारों का भी कुछ कुछ क्षेत्रों में था परंतु आखिर अंग्रेजी भाषा का पूरे हिन्दुस्तान में नाम लेने के लिए भी अपना कोई क्षेत्र विशेष तो था नहीं। इसलिए अंग्रेजी अखबार छोटे होते हुए भी राष्ट्रीय कहलाए और हिन्दी के अखबार बड़े होते हुए भी क्षेत्रीयता का सुख-दुख भोगते रहे।
परंतु पिछले दो दशकों में ही हिन्दी अखबारों ने प्रसार और प्रभाव के क्षेत्र में जो छलांगे लगाई हैं वह आश्चर्यचकित कर देने वाली हैं। जालंधर से प्रारंभ हुई हिन्दी अखबार पंजाब केसरी पूरे उत्तरी भारत में अखबार न रहकर एक आंदोलन बन गई है। जालंधर के बाद पंजाब केसरी हरियाणा से छपने लगी उसके बाद धर्मशाला से और फिर दिल्ली से।
जहां तक पंजाब केसरी की मार का प्रश्न है उसने सीमांत राजस्थान और उत्तर प्रदेश को भी अपने शिकंजे में लिया है। दस लाख से भी ज्यादा संख्या में छपने वाला पंजाब केसरी आज पूरे उत्तरी भारत का प्रतिनिधि बनने की स्थिति में आ गया है ।
जागरण तभी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर से छपता था और जाहिर है कि वह उसी में बिकता भी था परंतु पिछले 20 सालों में जागरण सही अर्थो में देश का राष्ट्रीय अखबार बनने की स्थिति में आ गया है। इसके अनेकों संस्करण दिल्ली, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, बिहार झारखंड, पंजाब, जम्मू कश्मीर, और हिमाचल से प्रकाशित होते हैं। यहां तक कि जागरण ने सिलीगुडी से भी अपना संस्करण प्रारंभ कर उत्तरी बंगाल, दार्जिलिंग, कालेबुंग और सिक्किम तक में अपनी पैठ बनाई है।
अमर उजाला जो किसी वक्त उजाला से टूटा था, उसने पंजाब तक में अपनी पैठ बनाई । दैनिक भास्कर की कहानी पिछले कुछ सालों की कहानी है। पूरे उत्तरी और पश्चिमी भारत में अपनी जगह बनाता हुआ भास्कर गुजरात तक पहुंचा है। भास्कर ने एक नया प्रयोग हिन्दी भाषा के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं में प्रकाशन शुरू कर किया है। भास्कर के गुजराती संस्करण ने तो अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है। दैनिक भास्कर ने महाराष्ट्र की दूसरी राजधानी नागपुर से अपना संस्करण प्रारंभ करके वहां के मराठी भाषा के समाचार पत्रों को भी बिक्री में मात दे दी है।
एक ऐसा ही प्रयोग जयपुर से प्रकाशित राजस्थान पत्रिका का कहा जा सकता है, पंजाब से पंजाब केसरी का प्रयोग और राजस्थान से राजस्थान पत्रिका का प्रयोग भारतीय भाषाओं की पत्रिकारिता में अपने समय का अभूतपूर्व प्रयोग है। राजस्थान पत्रिका राजस्थान के प्रमुख नगरों से एक साथ अपने संस्करण प्रकाशित करती है। लेकिन पिछले दिनों उन्होंने चेन्नई संस्करण प्रकाशित करके दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रयोग को लेकर चले आ रहे मिथको को तोड़ा है। पत्रिका अहमदाबाद सूरत कोलकाता, हुबली और बैंगलूरू से भी अपने संस्करण प्रकाशित करती है और यह सभी के सभी हिंदी भाषी क्षेत्र है। इंदौर से प्रकाशित नई दुनिया मध्य भारत की सबसे बड़ा अखबार है जिसके संस्करण्ा अनेक हिंदी भाषी नगरों से प्रकाशित होते हैं।
यहां एक और तथ्य की ओर संकेत करना उचित रहेगा कि अहिंदी भाषी क्षेत्रों में जिन अखबारों का सर्वाधिक प्रचलन है वे अंग्रेजी भाषा के नहीं बल्कि वहां की स्थानीय भाषा के अखबार हैं। मलयालम भाषा में प्रकाशित मलयालम मनोरमा के आगे अंग्रेजी के सब अखबार बौने पड़ रहे हैं। तमिलनाडु में तांथी, उडिया का समाज, गुजराती का दिव्यभास्कर, गुजरात समाचार, संदेश, पंजाबी में अजीत, बंगला के आनंद बाजार पत्रिका और वर्तमान अंग्रेजी अखबार के भविष्य को चुनौती दे रहे हैं। यहां एक और बात ध्यान में रखनी चाहिए कि उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, झारखंड इत्यादि हिन्दी भाषी राज्यों में अंग्रेजी अखबारों की खपत हिंदी अखबारों के मुकाबले दयनीय स्थिति में है। अहिंदी भाषी क्षेत्रों की राजधानियों यथा गुवाहाटी भुवनेश्वर, अहमदाबाद, गांतोक इत्यादि में अंग्रेजी भाषा की खपत गिने चुने वर्गों तक सीमित है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यदि राजधानी में यह हालत है तो मुफसिल नगरों में अंग्रेजी अखबारों की क्या हालत होगी? इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। अंग्रेजी अखबार दिल्ली, चंडीगढ़, मुम्बई आदि उत्तर भारतीय नगरों के बलबूते पर खड़े हैं। इन अखबारों को दरअसल शासकीय सहायता और संरक्षण प्राप्त है। इसलिए इन्हें शासकीय प्रतिष्ठा प्राप्त है। ये प्रकृति में क्षेत्रिय हैं (टाइम्स ऑफ इंडिया के विभिन्न संस्करण इसके उदाहरण है।) मूल स्वभाव में भी ये समाचारोन्मुखी न होकर मनोरंजन करने में ही विश्वास करते हैं । लेकिन शासकीय व्यवस्था ने इनका नामकरण राष्ट्रीय किया हुआ है। जिस प्रकार अपने यहां गरीब आदमी का नाम कुबेरदास रखने की परंपरा है। जिसकी दोनों ऑंखें गायब हैं वह कमलनयन है। भारतीय भाषा का मीडिया जो सचमुच राष्ट्रीय है वह सरकारी रिकार्ड में क्षेत्रीय लिखा गया है। शायद इसलिए कि गोरे बच्चे को नजर न लग जाए माता पिता उसका नाम कालूराम रख देते हैं। ध्यान रखना चाहिए कि इतिहास में क्रांतियाँ कालूरामों ने की हैं। गोरे लाल गोरों के पीछे ही भागते रहे हैं। अंग्रेजी मीडिया की नब्ज अब भी वहीं टिक-टिक कर रही है। रहा सवाल भारतीय पत्रकारिता के भविष्य का, उसका भविष्य तो भारत के भविष्य से ही जुड़ा हुआ है। भारत का भविष्य उज्जवल है तो भारतीय पत्रकारिता का भविष्य भी उज्ज्वल ही होगा। यहां भारतीय पत्रकारिता में हिंदी पत्रकारिता का समावेश भी हो जाता है।

पिछले दिनों दिल्ली में वेब दुनिया से जुडे लोगों के लिये एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का आयोजन हुआ

पिछले दिनों दिल्ली में वेब दुनिया से जुडे लोगों के लिये एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का आयोजन हुआ और इंटरनेट और डिजिटल मीडिया से जुडे जिस भी व्यक्ति या संस्थान ने उस अवसर को गँवाया उसने निश्चय ही कुछ गँवाया। 16 अक्टूबर से 18 अक्टूबर तक डिज़िटल एम्पावरमेण्ट फाउण्डॆशन के तत्वावधान में दक्षिण एशिया के स्तर पर मंथन पुरस्कारों का आयोजन किया गया और इसमें तीन दिनों तक पुरस्कार की श्रेणी में शामिल किये गये संस्थानों और व्यक्तियों सहित अनेक गैर सरकारी संगठनों, व्यावसायिक कम्पनियों ने अपने अनुभव लोगों के साथ बाँटे। इस पूरे आयोजन से जो निष्कर्ष मूल रूप में निकल कर आया वह मुख्य रूप से यह था कि डिजिटल युग आ चुका है जो व्यापक स्तर पर परिवर्तन करने जा रहा है और यह परिवर्तन सोच के स्तर से कार्य करने के स्तर सहित जीवन के नय क्षेत्रों को भी प्रभावित करने जा रहा है। पूरे आयोजन में उन लोगों को पुरस्कारों की श्रेणी में शामिल किया गया था जिन्होंने डिजिटल मीडिया में कुछ नये प्रयोग किये हैं और इस श्रेणी में लोकमंच के सहायक शशि सिंह को उनके संयुक्त उपक्रम पोड भारती के लिये सांस्कृतिक और मनोरंजन श्रेणी में चुना गया था जो उन्होंने हिन्दी ब्लागिंग के आरम्भिक पुरोधाओं में से एक देवाशीष चक्रवर्ती के साथ आरम्भ किया है। पोड भारती डिजिटल मीडिया के एक आयाम पोडकास्टिंग का प्रयोग है। हालाँकि पोड भारती को यह पुरस्कार नहीं मिल सका पर दक्षिण एशिया स्तर के किसी आयोजन और भारी प्रतिस्पर्धा के मध्य अपना स्थान बना पाना भी एक विशेष उपलब्धि रही।
तीन दिनों के इस आयोजन में जो कुछ विषय विशेष रूप से उभर कर आये उनमें से एक यह था कि डिजिटल मीडिया को एक प्रभावी और सक्षम माध्यम मान कर प्रशासन जनता के साथ निचले स्तर पर सम्पर्क स्थापित करने के लिये इस माध्यम को विश्व स्तर पर अपनाने को कटिबद्ध हो रहा है। 1990 के दशक से आरम्भ हुई सूचना क्रांति को अब जनोपयोगी बनाने की दिशा में चिंतन आरम्भ हो गया है और डिजिटल विभाजन जो कि साधन सम्पन्न और बिना साधन वालों के मध्य है उसे पाटने का प्रयास किया जा रहा है। तीन दिन के इस कार्यक्रम में जिन भी गैर सरकारी संस्थानों और व्यावसायिक कम्पनियों ने अपने विचार और कार्यक्रमों का उल्लेख किया उससे एक बात स्पष्ट थी कि अब इस तकनीक को हर स्तर पर आगे ले जाने के प्रयास हो रहे हैं और उनमें व्यावसायिक के साथ साथ जनोपयोगी प्रयास भी हैं। डिजिटल मीडिया के विस्तार से सूचना एक उद्योग में परिणत हो जायेगा और सम्भवतः भारत में मनोरंजन के पश्चात सबसे बडा कोई उद्योग पनपने जा रहा है तो वह सूचना उद्योग है। इस पूरे आयोजन से कुछ उत्साहजनक संकेत भी मिले जैसे कि सूचना के व्यापक सम्भावना वाले उद्योग को देखते हुए विश्व स्तर पर कम्प्यूटर बनाने वाले कम्पनियाँ इस बात पर गम्भीरता से विचार कर रही हैं कि किस प्रकार 100 डालर की राशि वाला कम्प्यूटर लोगों को उपलब्ध कराया जा सके ताकि डिजिटल क्रांति से नीचे स्तर तक भी लोगों को अपने साथ जोडा जा सके और सूचना उद्योग अधिक व्यापक हो सके। इस सम्बन्ध में प्रशासनिक स्तर पर शासन को अधिक पारदर्शी और जनोन्मुख करने के लिये विकासशील देशों की सरकारें अपने आँकडों और डिजिटल स्वरूप देने और गैर सरकारी संगठनों की सहायता से शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी ढाँचों को सशक्त करने के लिये डिजिटल क्रांति की ओर बडी आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं। तीन दिन के इस आयोजन मे जिस प्रकार कुछ राज्यों की सरकारों और गैर सरकारी संगठनों ने अपने कार्य दिखाये उससे यह विश्वास किया जा सकता है कि यदि तकनीक का आधारभूत ढाँचा सामान्य लोगों की पहुँच में आ जाये को इस तकनीक के सहारे शिक्षा और स्वास्थ्य की दिशा में अच्छी प्रगति हो सकती है। जैसे आन्ध्र प्रदेश राज्य की ओर से पालिटेक्निक संस्थानों के पाठ्यक्रम को जिस प्रकार 14,000 अध्यापकों ने 100 दिनों के भीतर तैयार कर उसे अधिक सहज और जनोन्मुखी बनाने के साथ एक साथ हजारों अध्यापकों को तकनीक के साथ जोड दिया उससे यह सम्भावना बलवती होती है कि सूचना क्रांति के उपयोग से कुछ क्रांतिकारी परिणाम भी आ सकते हैं। इसी प्रकार कर्नाटक के एक छोटे से गाँव में कुछ बच्चों के साथ प्रयोग हो रहा है कि किस प्रकार गणित के फोबिया से उन्हें मुक्ति दिलाकर विषय को सहज बनाया जा सके। हमारे समक्ष ज्ञान दर्शन और इग्नू का उदाहरण है किस प्रकार तकनीक के उपयोग से शिक्षा को जन जन तक कुछ हद तक पहुँचाया जा सकता है।
डिजिटल मीडिया के भविष्य़ को देखते हुए अनेक व्यावसायिक कम्पनियाँ विज्ञान और गणित जैसे विषयों को चित्रों के द्वारा और अधिक सही ढँग से समझाने के प्रयास में लगी हैं और इस सम्बन्ध में उन्हें डिजिटल क्रांति के दौर में आधारभूत ढाँचों और तकनीक से सस्ते होने और अधिक लोगों तक पहुँच पाने की अपेक्षा है। पूरे आयोजन में जो एक बात अधिक उत्साहजनक थी वो यह कि अब डिजिटल क्रांति को अपने अपने कारणों से अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने का प्रयास आने वाले दिनों में किया जायेगा और शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रशासन और जनता के अधिकारों के लिये कार्य करने वाले संगठनों की माँग सूचना क्रांति के दूसरे चरण में बढने वाली है जब सामग्री या कंटेंट को लेकर व्यापक प्रयास हो रहा है।
तीन दिन के इस आयोजन में पूरा समय इस बात पर दिया गया कि किस प्रकार कंटेंट सृजित किया जाये क्योंकि डिज़िटल मीडिया और सूचना क्रांति के पास सबसे बडा संकट कंटेन को लेकर है क्योंकि तकनीक को लोगों तक पहुँचा कर उसे बाजारोन्मुखी तब तक नहीं बनाया जा सकता जब तक तकनीक प्रयोग करने वाले के लिये कोई उपयोगी जानकारी उस तक न पहुँच पा रही हो। परंतु सूचना क्रांति के इस चरण का सर्वाधिक लाभ यह है कि कंटेन्ट या सामग्री को लेकर सारी मारामारी स्थानीय स्तर तक पहुँचने की है। सूचना क्रांति के इस दूसरे चरण में स्थानीय भाषाओं, स्थानीय संस्कृतियों और अधिक जनसंख्या वाले समूहों का बोलबाला होने वाला है।
डिजिटल मीडिया का नया स्वरूप पत्रकारिता को भी प्रभावित करने वाला है। अब इंटरनेट पर टेलीविजन, मोबाइल पर टेलीविजन के साथ फिल्मों का प्रीमियर भी मोबाइल सेट पर अति शीघ्र ही हो सकेगा। लेकिन इन सबके मध्य डिजिटल मीडिया के समक्ष सबसे बडा संकट अब भी सामग्री का है और विविधता का दावा करने वाले और अपने संसाधनों का बडा अंश सामग्री के लिये व्यय करने वाली बडी बडी कम्पनियाँ भी अभी भी उन्नत सामग्री के अभाव से ग्रस्त हैं और इसका इस बडा कारण अब भी भारत में लेखक या बुद्धिजीवी वर्ग का तकनीक से भागना रहा है। जो लोग तकनीक के प्रसार की इस बात के लिये आलोचना करते हैं कि यह ऊटपटाँग चीजें परोस रहा है उन्हें डिजिटल मीडिया में सामग्री को लेकर छाए इस शून्य का लाभ उठाना चाहिये परंतु अधिकतर लोग तकनीक सीखने के स्थान पर उसे कोसने में अधिक सहजता अनुभव करते हैं। लेकिन आने वाले दिनों में सामग्री का भी एक बडा बाजार बनेगा और साथ ही अनुवाद का भी।
सूचना क्रांति के इस नये दौर में पत्रकारिता का क्या स्वरूप होगा यह भी एक प्रश्न है। आज भी भारत में विशेषकर हिन्दी पत्रकारिता रूढिवादी है और तकनीक को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। 40 से अधिक या 50 के आस पास की अवस्था के पत्रकार अब भी ब्लागिंग और इंटरनेट के मह्त्व को स्वीकार कर पाने का साहस नहीं कर पा रहे हैं और यही कारण है कि अनेक पत्रकार अज्ञानतावश वेब आधारित पत्रकारिता को ड्रायिंग रूम की अनैतिक पत्रकारिता भी कहने में नहीं हिचकते पर शायद वे भूल जाते हैं को वेब केवल एक तकनीकी परिवर्तन है और पत्रकारिता का मूल भाव कि तथ्यों का वास्तविक मूल्याँकन करने की परिपाटी वही है। भारत में तो वेब आधारित पत्रकारिता और ब्लागिंग तो पिछले कुछ वर्षों में आयी है पर पश्चिम में तो यह एक वैकल्पिक पत्रकारिता का स्वरूप ले चुकी है और तथाकथित मुख्यधारा की पत्रकारिता भी इसके सन्दर्भों का हवाला देती है और इसे प्रामाणिक मानती है।
डिजिटल मीडिया के प्रभाव से पत्रकारिता में स्थानीय वैश्विकता की नयी प्रवृत्ति का समावेश होगा अर्थात विश्व के किसी भी कोने में बैठा कोई व्यक्ति अपनी स्थानीयता से जुड सकेगा और साथ ही स्थानीय व्यक्ति विश्व की गतिविधियों से जुड सकेगा। हिन्दी पत्रकारिता इसी परिवर्तन के सन्दर्भ में रूढिवादी है और वह केवल स्थानीय विषयों को उठाने को अधिक समर्पित और जमीन से जुडी आदर्श पत्रकारिता मान कर चलती है। डिजिटल मीडिया के इस दौर में लोगों की वैश्विक पहुँच और आकाँक्षा हो गयी है और इन दोनों में संतुलन बनाने का प्रयास आगे इस युग में हिन्दी पत्रकारिता को करना सीखना होगा। उदाहरण के लिये यदि झारखण्ड और छत्तीसगढ के गाँवों में और बिहार की बाढ की वास्तविकता विदेशों में बैठा भारतीय या देश के अन्य हिस्से में बैठा भारतीय जानना चाहता है तो वहीं भारत का व्यक्ति सूचना क्रांति के चलते विश्व से जुड गया है और वह यह जानने को भी उत्सुक है कि अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव में क्या चल रहा है, या फिरअंतरराष्ट्रीय स्तर पर कौन से घटनाक्रम हैं जो भारत को प्रभावित करते हैं। हिन्दी पत्रकारिता में अब भी नयी प्रवृत्ति को अपनाने का प्रयास करने के स्थान पर उसकी आलोचना करने की प्रवृत्ति अधिक दिख रही है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि हिन्दी पत्रकारिता में नयी पीढी अभी अपना स्थान नहीं बना पायी है।

चुनाव देता है नेताओं को मानसिक तनाव

भारत मे प्रेम प्रसंग और व्यापर में नुक़सान जैसे मामलों में तनाव पैदा होने पर तो लोग मनो-चिकित्सों के पास जाते रहे हैं. लेकिन अब चुनाव भी मानसिक तनाव का कारण बन कर उभरा है.
जयपुर में सवाई मान सिंह मेडिकल कॉलेज अस्पताल के मनो-चिकित्सकों ने इस पर अध्ययन कर बताया है कि चुनावी प्रक्रिया में लगे लोगों को कई बार मानसिक तनाव का सामना करना पड़ता है.
डॉक्टर कहते हैं कि जितना छोटा चुनाव, तनाव उतना ही बड़ा. टिकट पाने से निराश कई बार लोग अवसाद का शिकार हो जाते हैं और डॉक्टरों से मदद लेते है.
राजस्थान
विधानसभा क्षेत्र-200
मतदान- 4 दिसंबर
मतगणना- 8 दिसंबर
सवाई मान सिंह मेडिकल कॉलेज में मनोचिकित्सा विभाग के अध्यक्ष डॉ शिव गौतम ने बीबीसी को बताया, "इस अध्ययन में पता लगा कि न केवल उम्मीदवार और टिकट के आवेदक, बल्कि उनके परिजन, रिश्तेदार, समर्थक और चुनाव कराने वाले कर्मचारी भी इस तनाव के शिकार होते हैं."
डॉ गौतम ने इस शोध में पाया कि चुनाव में अपेक्षित परिणाम नहीं मिलने और चुनाव के दौरान अत्यधिक काम करने वाले लोग अक्सर कम सो पाते हैं और नशे का सहारा भी लेते हैं, इससे तनाव और अवसाद पैदा होता है.
तरीक़े
मनोचिकित्सक ऐसे लोगो को अब तनाव से बचने के तरीक़े भी बता रहे हैं. डॉ गौतम कहते है, "मादक पदार्थों के सेवन से बचना चाहिए और कम से कम छह घंटे की नींद ज़रूर लेनी चाहिए."
जयपुर के किशन शर्मा छोटू भारत की सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी कांग्रेस के सदस्य है. टिकट के लिए बहुतेरे प्रयास किए मगर ख़ाली हाथ लौटना पड़ा.
किशन शर्मा कहते हैं, "जब हम अपने समर्थकों के साथ कई-कई दिन नेताओं के चक्कर काटते हैं तो भावनात्मक तौर पर जुड़ जाते हैं. जब टिकट नहीं मिलता है तो निराशा होती है. मेरे साथ यही हुआ और मुझे डॉक्टरों के पास जाना पड़ा और दवा लेनी पड़ी."
अतर सिंह गुर्जर ख़ुद भारतीय जनता पार्टी के सदस्य है. वे कहते हैं, "टिकट हासिल करने की पूरी प्रक्रिया ही तनाव भरी है. इस स्थिति में अच्छे नेता की हालत भिखारी जैसी हो जाती है और उसे तनाव दूर करने के लिए इधर-उधर जाना पड़ता है."
बाड़मेर के पोकरराम को ख़ुद के लिए टिकट नही चाहिए. पर वे अपने साथियों के संग जयपुर आए और विधायक तगाराम के लिए गुहार करते मिले. कहने लगे हमें तनाव हो रहा है हमारे नेता को टिकट नही मिलने से. मैं क्या हम सभी को ही तनाव हो रहा है.
सहारा
भारत मे चुनाव के दौरान अब कार्यकर्ता तार्किक बहस या बौद्धिक संबोधनों की बजाय उत्तेजक नारों का सहारा लेते देखे गए हैं.
जब हम अपने समर्थकों के साथ कई-कई दिन नेताओं के चक्कर काटते हैं तो भावनात्मक तौर पर जुड़ जाते हैं. जब टिकट नहीं मिलता है तो निराशा होती है. मेरे साथ यही हुआ और मुझे डॉक्टरों के पास जाना पड़ा और दवा लेनी पड़ी

किशन शर्मा छोटू, कांग्रेस नेता
डॉ गौतम कहते हैं, "ये देखा गया है कि पंचायत जैसे छोटे चुनावों में लोगों में तनाव ज़्यादा होता है. क्योंकि वहाँ लोग बहुत से व्यक्तिगत मुद्दों को बीच में लाते हैं और दुश्मनी भी निकलते हैं."
विधानसभा चुनावों मे उससे कम तनाव और लोकसभा चुनावो में और भी कम तनाव होता है. यूँ तो सिसायत कभी जातीय और कभी संप्रदायिक तनाव से अपनी राजनैतिक पूंजी जमा करती देखी गई है. पर अब सियासत मे लगे लोग ख़ुद भी इसका शिकार होने लगे है.
और ये सब इसलिए होता है कि हर उम्मीदवार जनसेवा करना चाहता है. जनसेवा का संकल्प गाँधी को दीन दुखियारों तक ले गया और वे मोहनदास से साबरमती के संत बन गए. पर ये नए भारत की सियासत है. इसमें नेता जन सेवा के लिए तनाव झेलने को भी तैयार है.

सोमवार, 17 नवंबर 2008

ओबामा

· जन्म : 4 अगस्त 1961
· जन्म स्थल : होनोलुलु, अमेरिका
· राष्ट्रियता : अमेरिकन
· पत्नी : मिशेल ओबामा
· संतान : मालिया ऐन और नताशा
· निवास : केनवुड, शिकागो, अमेरिका
· शिक्षा : ओक्सिडेंटल कॉलेज, अमेरिका
· व्यवसाय : एटर्नी
· धर्म : प्रोटेस्टंट ईसाई
· माता पिता: बराक हुसैन ओबामा सिनियर (पिता), एन डनहैम (माता)
· पार्टी : डेमोक्रेटिक पार्टी
· राजनैतिक अनुभव : इलिनोयस के सिनेटर – 1996,1998,2000, अमेरिका के सिनेटर – 2005
· लेखन : ड्रीम्स ऑफ माय फादर, द ऑडेसिटी ऑफ हॉप

1. ओबामा के पिता मूल केन्या के थे और माता अमेरिकन थी. माता पिता का तलाक होने के बाद ओबामा कुछ वर्षों तक इंडोनेसिया में भी रहे थे, क्योंकि उनकी माँ ने वहाँ के एक नागरिक से दूसरी शादी की थी.
2. बराक ओबामा को खाली समय मे बॉस्केटबॉल खेलना पसंद है.
3. 10 फरवरी 2007 को ओबामा ने राष्ट्रपति पद का चुनाव लडने की घोषणा की. अधिसंख्य लोगों ने उनका मजाक उडाया.
4. ओबामा विदेश संबंध, पर्यावरण और नागरिक सुविधाओं की कमेटियों में महत्वपूर्ण योगदान देते रहे हैं.
5. बुश की इराक नितियों की ओबामा ने हमेशा भ्रत्सना की है.
6. डेमोक्रेट राष्ट्रपति नोमिनेशन के दौर के दौरान उनपर मुस्लिम होने का लांछन लगाया गया. ओबामा ने बार बार कहा कि वे 20 साल से चर्च जा रहे हैं, और वे पक्के ईसाई हैं.
7. ओबामा ने राष्ट्रपति चुनाव अभियान के लिए भारी मात्रा में चन्दे की उगाही की.
8. ओबामा आउटसोर्सिंग के विरोधी रहे हैं.
9. ओबामा अंतरिक्ष के क्षेत्र में चीन और भारत के बढते कदमों से विचलित हैं. उन्होने नासा को कमर कसने को कहा था.
10. ओबामा अमेरिकी इतिहास में राष्ट्रपति पद के लिए चुने गए पहले अश्वेत उम्मीदवार थे.
11. ओबामा अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने.