शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

मुद्दा क़ानूनी बदलाव के सकारात्मक संकेत

मुद्दा क़ानूनी बदलाव के सकारात्मक संकेत



देश में खाद्दान की कमी हो गई है अब यह कोई खास समाचार नहीं रहा.बल्कि इन दिनों क़ानूनी बदलाव पर जो बहस हो रही है वह खास समाचार है. राजेश मिश्र बता रहे है कि अपाहिज विकास की शर्मनाक सच्चायों पर नकेल कसने की जरुरत आ गई है.





अब न्यायालय यह स्पष्ट रूप से कह दिया है कि आम लोगोको वश्वीकरण और उदारीकरण के आकर्षक नारों में नहीं उलझना चाहिए. यह बात सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीश, जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति एके गांगुली ने एक साथ कही है साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि अदालतों के भीतर मिले कुछ संकेतों से लगता है कि उनका नज़रिया एक बार फिर बदल रहा है.

सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों, न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति एके गांगुली ने कहा है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की आख़िरी अदालत, यानी सुप्रीम कोर्ट के बारे में कहा कि किसी आपराधिक मामले पर सज़ा का फ़ैसला करते हुए यह ध्यान में रखने कि ज़रूरत है कि वह अपराध ग़रीबी के दबाव में तो नहीं किया गया है. अदालत ने कहा है कि किसी ग़रीब अपराधी में सुधार की संभावना को भी ध्यान में रखना चाहिए.

पिछले हफ़्ते ही दिल्ली हाईकोर्ट से सेवानिवृत्त हुए मुख्य न्यायाधीश एपी शाह ने सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदर्शिता की ज़रुरत पर बल दिया है.

गौरतलब है कि इससे पहले ही सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक कर दिया है. कानूनविदों ने यह भी मान लिया है कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय में सूचना के अधिकार के तहत आना चाहिए. जाहिर है इस सकारात्मक बदलाव से भारत के संविधान में पारदर्शिता आएगी . सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आरसी लाहोटी, ने तो बहुत पहले ही कह दिया है कि आने वाले दिन एलपीजी के हैं. एलपीजी मतलब लिब्रलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन. यानी उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण. वर्तमान मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन भी उस समय एलपीजी के इस सिद्धांत से है. भोपाल में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीशों के सम्मेलन में यह बात उठी कि उदारीकरण, नई अर्थव्यवस्था और नई तकनीकें कैसी हैं. अदालतों का रुख़ ऐसा हो चला है मानों वे सरकार की नीतियों के अनुरुप अपने आपको बदल लेना चाहती हैं.

जिस वैश्वीकरण और उदारीकरण को लेकर समाज में आम सहमति नहीं बन सकी थी उससे अदालतें मानों सहमत हुए जा रही थीं.

बताने कि जरुरत नहीं कि .कथित मीडिया ट्रायल के बाद ही सही प्रियदर्शिनी मटूट, जेसिका लाल, शिवानी भटनागर और नितीश कटारा की हत्या जैसे मामलों के अभियुक्त प्रभावशाली होने के बावजूद सलाखों के पीछे तो हैं. अदालत से बाहर आते समय चाहे एसपीएस राठौर की चुटकिली मुस्कुराहट क्यों न हो अब उन्हें भारी तो पड़ ही रही है.हालांकि अभी बहुत कुछ होना बचा हुआ है.

अब समय आ गया है कि देश भ्रष्टाचार के मामलों में पकड़े गए अधिकारियों और राजनेताओं को सीखचों के पीछे ज़िंदगी गुज़ारते देखना चाहता है. हत्या, लूट और बलात्कार के मामलों के अभियुक्तों को विधानसभाओं और संसद में प्रवेश करने से वंचित होता देखना चाहता है. देश चाहता है कि जब बरसों बरस से लाखों मामले अदालत में लंबित हों तो अदालतें उसे चिंता के साथ देखें.

जब हज़ारों लोग विचाराधीन क़ैदियों की श्रेणी में हों तो अदालतों को विचार करना चाहिए कि गर्मियों की और शीतकाल की लंबी छुट्टियाँ अदालतों के लिए कितनी ज़रुरी हैं.

इंतज़ार उस दिन का भी है जिस दिन माननीय न्यायाधीश बेझिझक कह सकें कि न्याय के मंदिर भ्रष्टाचार और पूर्वाग्रहों से मुक्त हैं.