मंगलवार, 27 अगस्त 2013

भौतिकातावाद के दौर में
कृष्ण की प्रासंगिकता

भौतिकातावाद के इस दौर मे जबकि मानवीय संवेदनाए लगातार दम तोड़ रही है। ऐसे मे कृष्ण के कर्म ज्ञान
को समझना हम सबों के लिये जरूरी हो जाता है। ये ज्ञान कहता है कि कर्म करने में इनसान पूरी तरह
स्वतंत्रा होता है। लेकिन यदि इसका ठीक से उपयोग न किया जाये तो उसके परिणाम भी भोगने पड़ सकते
है। उन्होंने विश्व समाज के सामने पहली बार कर्मों के रहस्यों को गीता के जरिए समझाने वाले उन्मुक्त
समाज के देवत्व पुरुष को बार-बार नमन।
जिन्होने समाज का समझाया कि कर्म किए एक पल भी रहा नहीं जा सकता है। और हमे सिर्फ कर्म करने
का अधिकार  है, फल की चिन्ता करना हमारा काम नहीं। आप गौर से विचार करेंगे तो देखेगें कि कृष्ण के
साथ अपना रिश्ता जितना आत्मीय है, उतना किसी और देवता के साथ नहीं है। बचपन से ही मनुष्य और
कृष्ण के साथ एक रिश्ता है। मानवीय जीवन मे  ये रिश्ता है सखा भाव का। राज-रंग और छल-कपट का,
भक्ति और योग का, भोग और राजनीति का, चोरी और झूठ का। कहने का मतलब है कि जिस ओर नजर
डालें, कृष्ण हमारे नजदीक दिखते है। कृष्ण के अनेक रूपों को देखकर बड़ा आश्चर्य होता है। फिर  चाहे
आप कृष्ण का श्रींगार रूप को देखें या उनके रंगीले  रूप को, गीता मे  उनके विशाल रूप को देखें या उनके
बाल रूप को। हर जगह कृष्ण हर तरह से संपूर्ण नजर आते है। और उनकी यही संपूर्णता हमे संदेश देते है
कि हम भी अपने आप को संपूर्ण बनाएं।
कहने को तो हम आधुनिक  है लेकिन  आज भी औरतों को पुरुषो  से निचले  दर्जे  पर रखा जाता है। लेकिन
कृष्ण ने उस दौर मे  महिलाओं को समान अधिकार,  उनकी पसंद से विवाह और लडकियों  को परिवार में
समान अधिकार   का संदेश दिया था।
आज भी समाज मे  यह मान्यता है कि एक लड़का और लड़की कभी दोस्त नहीं हो सकते। कृष्ण ने द्रौपदी
को अपनी सखी, मित्र ही माना और पूरे दिल से उस रिश्ते को निभाया भी। द्रौपदी से कृष्ण की मित्राता को
देखते हुए द्रौपदी के पिता द्रुपद ने उन्हे  द्रौपदी से विवाह का प्रस्ताव भी दिया लेकिन कृष्ण ने इनकार किया
और हमेशा अपनी मित्राता निभाई।
आज भी हमारा समाज जात-पात के चक्रव्यूह में जकड़ा है लेकिन कृष्ण ने लगभग सभी वर्गों को पूरा
सम्मान दिया। उनके अधिकतर  मित्र नीची जाति के ही थे, जिनके लिए वे माखन चुराया करते थे।
आज भी परिवार  मे लड़के - लड़कियों  की पसंद को महत्व नहीं दिया जाता लेकिन कृष्ण ने पांच
हजार साल पहले ही इस बात को नकार दिया। दुर्योधन  उनका शत्रु  था और उन्हे बिलकुल पसंद नहीं था।
फिर भी जब कृष्ण के पुत्र साम्ब ने दुर्योधन  की पुत्री  लक्ष्मणा का हरण कर उससे विवाह किया तो कृष्ण ने
उसे स्वीकार किया।
सबसे बड़ी बात आज भी हमारे समाज में बलात्कार पीडि़त लड़कियों को सम्मान नहीं मिलता है , लेकिन कृष्ण ने 16,100 ऐसी लड़कियों को जरासंघ के आत्याचारों से मुक्ति दिलाई और अपनी पत्नी बनाया जो बलात्कार पीडि़ता थीं और उनके परिवारों ने ही उन्हे  अपनाने से मना कर दिया था। इस तरह अपने कर्मों  के द्वारा उन्होंने विश्व चेतना को आन्दोलित ही नहीं किया, बल्कि इतिहास की धरा को भी नया मोड़ दिया।
शायद देवताओं की श्रृंखला मे  इकलौते कृष्ण ही है जो सामान्य आदमी के करीब है। कृष्ण एक ऐसी जिंदगी
है जिन्हें  जन्म के साथ ही उनके मारे जाने की धमकी  है। जिसके दरवाजे पर मौत कई बार आती है और
हार कर लौट जाती है। ठीक वैसे ही जैसे आज के असुरक्षित समाज मे  पैदा होते ही मृत्यु से लड़ना आम
आदमी की नियति है। इसलिए हमे  कृष्ण अपने पास के लगते है।
शायद आम आदमी की नियति वे कृष्ण ही थे जिन्होंने मां का मक्खन चुराया। महाभारत मे  एक ऐसे आदमी
से झूठ बुलवाया जिसने कभी झूठ नहीं बोला। सूर्य को छुपा कर नकली सूर्यास्त करा दिया। ताकि शत्रु  मारा
जा सके। भीष्म के सामने नपुंसक  शिखंडी खड़ा कर दिया। ताकि बाण न चले। उन्होंने अपने मित्र की मदद
स्वयं अपनी बहन को भगाने मे  की। यानी कृष्ण धर्म  की रक्षा के लिए परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहे।
शायद यही कारण है कि पांच हजार साल के बाद भी युद्ध  क्षेत्र मे  लिखी गई ‘गीता’पहली पुस्तक है जिसका
मुकाबला दुनिया की कोई किताब नहीं करती।
आइये हम सब भी जन्माष्टमी के इस शुभअवसर श्री कृष्ण के इन सदगुणों  को अपने जीवन मे अपनाएं और
खुद को समाज और विश्व के प्रति विश्वाकार बनाने का संकल्प लें। और फिर ‘अहं ब्रह्मस्मि’ का मर्म
समझकर जीवन को कर्मशीलता के मार्ग से जोड़ें । आप सभी को मेरी शुभकामनाये ।

गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

न्यूटन और आइंस्टीन के सूत्रों से बड़े हैं 
नारी शक्ति और नवरात्र के सूत्र 

भारत ही एक मात्रा ऐसा देश है, जहां स्त्री  के शक्ति की भी उपासना की जाती है। यहां के उत्सवों में दुर्गा पूजन, तथा कन्या पूजन का विशेष महत्व माना गया है। हमारे ध्र्म ग्रथों में शिव से शक्ति का मिलन एक बहुत ही धर्मिक तथा बड़ी घटना के रुप में देखा गया है। यह मिलन सृजन तथा विघटन का रुप भी निर्धरित करता है। यानी नये कामों की शुरुआत का वातावरण नवरात्रा कहलाती है।
माता का महत्व क्या है? ये समझने के लिए हम सबों को भगवान श्री राम का जीवन देखना चाहिये। श्री राम ने वहां जन्म लिया जहां उन्हें तीन माताओं की ममता मिली, भगवान श्रीकृष्ण की जीवनी देखें तो उन्होंने भी दो माताओं की ममता का स्वाद चखा। पर हमें तो एक-एक ही मां मिली है, यदि उस ममता को भी हम पा ना सकें तो हमसे बड़ा दुर्भाग्य किसका होगा। शास्त्रों में वर्णन  है की  पुत्र  कुपात्र हो सकता है, पर माता कभी कुमाता नहीं हो सकती। आज समाज में भले ही नकारात्मकता अध्कि हो, अन्याय बढ़ रहे हों, भारतीय संस्कृति में देवी के रूप में मान्य स्त्रियों  के सम्मान पर प्रहार हो रहा हो, ऐसे समय में जरूरत है न्याय-प्रतीकों को सबल बनाने की।
और ये सबल तभी हो सकता है जब हम देवी को जानें। जाने... उसे, जिसके बिना जीवन आगे नहीं बढ़ सकता। क्योंकि  देवी को जीवन और जगत का स्वरूप ही नहीं, कारक, पालक और निवारक भी माना गया है। देवी ही लक्ष्मी-रूपा हैं तो सरस्वती-रूपा भी। शक्ति या श्रधा  से लेकर कामना-रूपों तक, प्रत्येक भाव में देवी को स्थापित किया गया है।
इसी भाव भंगिमा को हम सब हर साल मनाते हैं । पर माता को पूजने वालों ने क्या कभी अपने आप से यह पूछा है कि जिस मां ने उन्हें जन्म दिया है, या जिस मां ने उनके माता-पिता को जन्म दिया है, कहीं उनमें से किसी का , आपसे दिल तो नहीं दुखा है? क्या आपने कभी कन्या को जन्म लेने से रोका है, या किसी के ऐसे अपराध् में सहभागिता निभाई है? यदि हां तो इस नवरात्रा में ये संकल्प लें कि अब ऐसा नहीं होगा।
...क्योकि संकल्प से हर नकारात्मक परिस्थितियों  को भी बदला जा सकता है। ...क्योंकि नवरात्रि त्योहार है उस मातृ-शक्ति के प्रति अपनी कृतज्ञता का जिसने प्रकृति को सृजन में शामिल किया। इसी सम्मलिनता में मां के अनेक रूप हैं।
मां... मां... इन शब्दों में कापफी गहरे आघ्यात्मिक अर्थ छुपे हुए हैं। मैं समझता हूं कि ये सूत्र इस मानव जीवन के लिए उतने ही कीमती हैं जितने विज्ञान के लिए न्यूटन और आइंस्टीन के सूत्र। ... क्योकि इन्हीं सूत्रों से हम मातृरूपेण, शक्तिरूपेण, बुद्धिरूपेण, लक्ष्मीरूपेण, के साथ जीवन में आगे बढ़ते हैं। और हम तभी आगे बढ़ सकते हैं, जब ‘या देवी देवी सर्वभूतेषु  हमारे साथ हो।


बुधवार, 13 मार्च 2013