शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

ओलंपिक इस खेल के बाजारीकरण का सच

हिटलर पहला व्यक्ति था, जिसने ओलंपिक खेलों का सीधे-सीधे राजनीतिक इस्तेमाल किया और तब एक अश्वेत धावक जेस्सी ओवंस ने नाजी गुरूर को तोड़ फासिस्ट विचारधारा की कलई ही खोल दी थी। लेकिन इसके बाद से ओलंपिक क्रमश: विभिन्न देशों की राजनीति का हिस्सा बनते चले गए। अब खेलों के बाजारीकरण का दूसरा दौर प्रारंभ हो चुका है। राजनीति और बाजार के गठबंधन ने खेलों को अपने हित साधने का एक औजार मात्र बनाकर रख दिया है।


बहररहाल, १८९६ में ऐथेंस में हुए खेलों से आधुनिक ओलंपिक की शुरूआत मानी जाती है। इस पूरे आयोजन के पीछे फ्रांस के कुलिन पियरे द कुबर्ती की विलक्षंण प्रतिभा थी। यह वह समय था जब युरोप गहरी उथल-पुथल से गुजर रहा था। राजनीतिक शक्ति का केंद्र तेजी से ब्रिटेन बनता चला जा रहा था। मलिका विक्टोरिया का कभी न डूबने वाला सूरज धीरे-धीरे तपने लगा था। नेपोलियन के पतन के बाद फ्रांस राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभुत्व के लिए छटपटा रहा था। ऐसे में ओलंपिक एक ऐसा सांस्कृतिक आयोजन बना जिसके राजनीतिक प्रभाव दूरगामी सिद्ध हुए। नए नायकों के अभाव में पुराने नायकत्व की स्थापना की गई। यह वास्तविकता के ऊपर मिथक की जीत थी।

इधर इन खेलों पर राजनीति से एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है। पिछले दो-तीन दशकों में हैरतअंगेज ढंग से खलों का व्यावसायीकरण हुआ है। खिलाड़ियों को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने का प्रयास गलत नहीं कहा जा सकता। लेकिन वास्तविकता इतनी एकांगी नहीं है। बाजीरीकरण ने खेलों को बिकाऊ माल और मुनाफाखोरी का उपक्रम बनाकर रख दिया है। इसमें बाजी वही देश ले जाते हैं जो आर्थिक रूप से शक्तिशाली हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां विश्व बाजार की ताकत के रूप में खेलों पर अपना प्रभाव ही नहीं डालती बल्कि उन्हें अपनी जरूरत के हिसाब से चलाती भी हैं।

खेलों के बाजारीकरण में एक नया मालबेचू किस्म का नायक उभरता है और पुराने का नामो-निशान नहीं रहता। बीजिंग ओलंपिक का नायक फ्लेप्स है। अगले ओलंपिक में उसकी तेजी, गति, आक्रामकता को याद भी रखेगा मुझे इसमें शक है। क्या अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताएं खेलों के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति भर हैं या ये ऐसे स्थल हैं जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियां मोटे मुनाफे की फसल काटती हैं।

बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के लिए स्टार खिलाड़ियों, कलाकारों पर पैसा लगाना पसंद करती हैं। उदहारण के लिए हमारे यहां हाकी के बजाय अनधिकृत रूप से क्रिकेट दर्जा लिए हुए है। सो क्रिकेट का स्वरूप बदला गया है। सफेद पोशाकें रंगीन हो चुकी हैं। कंपनियों के लोगो और बिल्ले खिलाड़ियों के कपड़ों, टोपियों से लेकर जूतों तक में चमकते रहते हैं।

पेप्सी और कोका कोला (इनके देश में क्रिकेट नही खेला जाता) ने इन सफल खिलाड़ियों को अनाप-शनाप पैसा और नायकत्व प्रदान किया है। क्यों? जाहिर है इससे उन्हें अपने उत्पादों के दूर-दूर तक प्रचार और बिक्री में आसानी होती है। कुल मिलाकर कहा जाए तो इनका पूरा विज्ञापन तत्व करोड़ों दर्शकों की मानसिकता को एक खास सांचे में ढालकर अपने उत्पादों की बिक्री में इजाफा करना है।

मोटा मुनाफा कमाने के लिए क्या-क्या छल-छद्म अपनाए जाते हैं, यह इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा। १९८७ में अपनी मृत्यु तक खेल का समान बनाने वाली प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनी एडिडास के प्रमुख हार्स्ट डैसलर इंटरनैशल स्पोर्ट्स एंड लैजर के भी मालिक थे। इस छोटी कंपनी का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं था। यह कंपनी बड़े-बड़े आयोजन करने वाले संगठनों से बढ़िया संबंध बनाने का माध्यम थी, जो एडिडास के लिए महत्वपूर्ण संपर्कसूत्र थे। यानी खेलों के आयोजनों को अपने पक्ष में करने के लिए इस सेंधमार कंपनी की स्थापना की गई थी। इसी तरह १९८० के मास्को ओलंपिक के अमेरिकी बहिष्कार के पीछे राजनीतिक कारणों के अलावा यह विचार भी था कि इससे पश्चिमी मीडिया की रूची कम होने से सोवियत संघ को स्पष्टत: आर्थिक हानि होगी। लेकिन इसके बावजूद मास्को खेलों के प्रसारण अधिकार करीब ८.७ करोड़ डालर में बिके और विज्ञापनों से होने वाली आय १५ करोड़ डालर आंकी गई। जाहिर है राजनीति बाजार पर हावी नहीं हो सकी।

लेकिन खेलों के बाजारीकरण का उत्कर्ष १९९२ में चोटी पर पहुंचा, जब अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी ने ५० करोड़ डालर के प्रसारण अधिकार की पेशकश को ठुकरा दिया। ये ओलंपिक खेलों की हैसियत और अधिक लाभ कमाने की गुंजाइश को दर्शाता था। ५० करोड़ डालर की पेशकश आखिर कितने व्यापारिक संगठनों को नसीब हो पाती है। मगर ये मौका मिला ओलंपिक कमेटी को, जो कहने को तो खेलों में व्यवसायिकता के खिलाफ है और ओलंपिक के दरवाजे गैरपेशेवर खिलाड़ियों के लिए ही खोलती है, पर स्वयं आकंठ बाजारीकरण में डूब चुकी है।

खेलों के अत्यधिक व्यवसायीकरण ने खिलाड़ियो को अनुचित शोहरत पाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को मजबूर कर दिया है। हानिकारक उत्तेजक दवा स्टोरायड्स का सेवन यूं ही नहीं किया जाता। जैसे विश्वसुंदरियों का निर्माण एक भूमंडलीय उद्योग बन चुका है, वैसे ही खिलाड़ियों का उत्पादन इस उद्योग का पुरुष संस्करण है।

बहुराष्ट्रीय कंपनियों को महिला खेलों में कोई दिलचस्पी नहीं है। कुछ साल पहले अंग्रेजी पाक्षिक पत्रिका फ्रंटलाइन के मुताबिक खेलों की ८२ फीसदी प्रायोजक कंपनियां महिला खिलाड़ियों मे कोई दिलचस्पी नहीं रखती (जब तक की वो सानिया मिर्जा की तरह आकर्षक यानी सेक्सी न हो, उसका खेल गया भाड़ में)। खेलों की इस राजनीति और बाजारीकरण ने खिलाड़ियों की मानसिकता को भी बदल डाला है। वो एक ऐसे व्याहमोह में पड़ गए हैं जिसे किसी भी हाल में स्वस्थ मानसिकता की निशानी नहीं कहा जा सकता। एक स्तर पर इसे अपराधी मानसिकता कह सकते हैं। इस व्याहमोह की झलक आप पूर्व ब्रिटिश बाडी बिल्डिंग चैंपियन जो वारीक्क में देख सकते हैं। वो लंबे समय से गुर्दे औऱ यकृत के विकारों से पीड़ित है। उसका कहना है कि गौरव के उस क्षण के लिए वो अब भी स्टीरायड्स का सेवन करने से नहीं चुकेंगी। जाहिर है खिलाड़ियों की एक ऐसी जमात पैदा हो रही है जो "बाकायदा बीमार" अमेरिकी धावक फ्लों जिन्होंने सौ मीटर दौड़ में विश्व रिकार्ड कायम किया, मात्र पैंतीस वर्ष में चल बसी। सारी दुनिया जानती है कि उनकी असामयिक मौत का कारण मादक दवाओं के उपयोग से जुड़ा है।

अंत में ट्रैक एंड फील्ड प्रतियोगिताओं से जुड़े एक मिथक की बात कर लेते हैं। अश्वेत खिलाड़ियों के दबदबे को सारी दुनिया चकित होकर देखती है। ऐसे विकसित राष्ट्र भी अश्वेत खिलाड़ियों को उतारते हैं, जहां उनकी संख्या न के बराबर है। इसलिए इन खिलाड़ियों को तुरत-फुरत नागरिकताएं दी जाती है्ं। लेकिन इतने सारे अफ्रीकी देश हैं, वो ओलंपिक पदक तालिका से गायब क्यों रहते हैं। जाहिर है कुपोषण, बीमारी और भुखमरी जैसी समस्याओ से त्रस्त देश अनाप-शनाप पैसा किसी खिलाड़ी पर कैसे खर्च कर सकते हैं?

कुल मिलाकर हम बाजार के युग में जी रहे हैं। कार्पोरेट प्रायजकों, विज्ञापन और मार्केटिंग एजेंसियां और मीडिया जिनका भी पैसा इस खेल में लगा है, वे हर हाल में एक कृत्रिम लेकिन सहज दिखती अनिश्चितता का माहौल पैदा करते हैं। खेल को अधिक उत्तेजक और आक्रामक बनाने के लिए उसके नियमों में बदलाव किए जाते हैं।पर खेल के बाज़ार में जो कुछ भी होता है या हो रहा है वोह सिर्फ़ एक बाजार है। माल धरल्ले से बिक रहे है ,पैसा आप का निकल रहा है । शायेद यही आपकी जरूरत है|

आह दिल्ली!

राजधानी दिल्ली! जहां सुबह होते ही हर व्यक्ति किसी गुलदस्ते की तरह सज- संवर कर घर से बाहर होता है और गहराती सांझ में मुरझाया हुआ लौटता है।
दिल्ली- जहां हर व्यक्ति को अपना वजूद कायम करने और रखने के लिये किसी न किसी रूप में खपना पड़ता है। इन्हीं में कुछ ऎसे अभागे भी होते हैं जिनकी नियती जिन्दगी भर खपने रहना ही होती है और उसके खपने का सिलसिला उस दिन पूरी तरह से खत्म हो जाता है, जब उसकी जिस्म की मशीनरी पूरी तरह से जबाव दे देती है। शायद नियती पर ठिठुरता हुआ यह कर्म दिन , महीने के साथ चलता रहता है, मौसम भले ही सर्दी का हो लेकिन सुर्ख होठों से पाला सबका पडता है।

अभी पिछले दिनों की ही बात है इंडिया टीवी के एक तथाकथित बडे पत्रकार से मिलने गया था। लौटते वक्त लाल बत्ती पर मेरी गाडी खड़ी हुई थी। सड़क के किनारे सिर पर राजस्थानी पगड़ी और घुटनों तक धोती पहने एक राहगुजर को देखता हूं। उसके ठीक पीछे एक जवान औरत की शरारती आँखें हमें घूरती हैं।

सिंगनल खुलता है, मैं आगे निकल पडता हूं। शायद वह व्यक्ति मुझसे कुछ कहना चाह रहा था , यह सोचकर पार्किंग में खडा हो जाता हूँ , मेरा अनुमान ठीक निकला।

'बाबू कुछ पैसे दे दो न!'

जेब में पडे फुटकर उसके हवाले कर पूछता हूं"-'यहाँ क्या करते हो ?

अँधा बांटे रवडी, चुन चुन कर खाये वाला काम करता हूं, बाउजी।

एक दिन में कितनी रेवडी बांट लेते हो?

लेग लुगाई कर के दो तीन सौ!

यह काम तो तुम गांव में भी कर सकते थे?

ये न थी हमारी किस्मत साब?

तभी तो दिल्ली आया हूं।मैनपुरी का वाशिंदा हूं साब। नौ दस बीधा जमीन थी, छोडो साब, आप यह सब क्यों पूछ रहे हो?

चल रे चल ... वह उस औरत की ओर इशारा करता है। औरत पलट कर चल देती है ।

अरे सुनो मैं आवाज लगा देता हूं।ये कौन है तुम्हारी बीवी? मै पूछता हूं, यह सोचकर कि किसी जगह कुछ जानकार मित्रों से कह कर कहीं इसे दिहाडी पर लगवा दूंगा । लड़की अबतक सड़क के उस पार जा चुकी है।लड़की के जाते ही वह कहता है "बेटी है बाबू, ऎसी कुलखनी औलाद भगवान किसी को न दें! अविवाहित बेटी का कुंवारापन टूट जाए तो बाप के लिए गाँव में जगह कहां बचती है बाबू "? इसलिये दिल्ली आ गया हूं।

बेटी की शादी कर दी तुमने?

"अरे बाबूजी अब शादी करने से क्या फर्क पडता है?

मतलब...

इतनी कम कमाई उसपर इसके दो बच्चे भी तो है!

वह मेरा कंधा बड़े इत्मीनान से झकझोर कर कहता है,मेरी नजर में तो मेरी बिटिया आज भी कुंवारी है बाबूजी!आओ न तुम्हारे थके हुये जिम की मालिश करवा दें।

मेरी बेटी कर देगी न! महताना कुल बीस रूपए दे देना।

पीछे किसी गाडी की लंबी हार्न सुनकर मैं आगे बढ़ जाता हूं ।

देखता हूँ सडक के उसपार एक सैंद्रो कार का दरवाजा खुलता है और खटक से बंद हो जाता है।उसकी बेटी अब सड़क पर नहीहै और मेरे पास से उसका बाप भी जा चुका होता है।

अनायास मेरे दिल से निकल पड़ता है "आह दिल्ली"।