शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

पिपली लाइव

पिपली लाइव

एक प्रभावहीन तमाषा का बाजारीकरण
राजेष मिश्र
फिल्म-’पीपली लाइव’।


निर्देशिका- अनुषा रिज्वी
प्रोड्यूसर- आमिर खान




किसानों की आत्महत्या पर आधारित है आमिर खान के इस फिल्म में आपने पिपली की तस्वीर तो देखी ही होगी। नहीं देखा है तो जरूर देखिये, ये मेरी गुजारिष है आपसे। फिर खुद से पूछियेगा कि इस फिल्म में आपको भारत की आखिर कौन सी तस्वीर दिखाई देती है ?


भारत में गरीबी की तस्वीर, भूख से मरते हुये किसानों की तस्वीर, भ्रड्ढट नेताओं की तस्वीर, चिरकुट टीवी चैनलों की तस्वीर, या फिर विवषता से उपजे बाजारबाद की वो तस्वीर, जहां हर चीज की कीमत होती है, इस बाजार में अस्मत् और किस्मत के बिकने की कहानी अब पुरानी हो गई, अब तो इस बाजार में मौत के खरीददार भी हैं और मौत बेचने वालों की लाचारी भी हैं।


जी हां, इस फिल्म में आमिर भाई ने षायद कहीं न कहीं परोक्ष रूप से सठिया रही स्वतंत्रता दिवस पर करारा प्रहार किया है। 15 अगस्त के दिन फिल्म का रीलिज होना,और राड्ढटृीय अवकाष के दिन लक्कख्ुआ के मौत के मंजर के तमाषा को देखने ताबरतोड टिकट का बिकना यह साबित करने के लिये काफी है कि हम कैसे भारत में रह रहे हैं. वो भारत जो न तो हमारे टीवी चैनलों पर दिखता है और न ही हमारे नेताओं की योजनाओं में.


यदि कम षब्दों में कहा जाये तो हम ही नहीं, आमिर भाई भी,नेता और ब्यूरोक्रेट्स भी, यहां तक की तथाकथित पत्रकार भाई भी,अ ब भारतवासी नहीं रहे बल्कि उस ‘इंडिया’ के हिस्सा हो गये हैं जो चमक रहा है। जी हां यह ‘साइनिंग इंडिया है।’ तो क्या हम ये मान लें कि पिपली के साइनिग तस्वीर को परत- दर- परत उघाड कर कामन बेल्थ गेम में आये मेजवानों को हम ठूस - ठूस कर बता दें कि ‘हम उस देष के बासी हैं, जहां दर्द का दरिया बहता है और जब पेट की भूख रोटी मांगती है तो उसकी कीमत चुकाई जाती है, आत्महत्या के बाद मिलने वाले मुआवजे से’।


जी हाँ  ये सब होता है सिर्फ ‘भारत’में, इंडियां में नहीं। क्योंकि भारतीय लोकतंत्र  में व्यक्ति को वस्तु बनाने वालें लोंगों ने देष को दो भागों में विभक्त कर दिया है। इंडिया और भारत। इंडिया में यात्रा करने के लिये लेटेस्ट वाहन हैं। सैंट्रो है, मैट्रो है। वहीं भारत में पिपली जैसा गांव भी है जहां रस्सी खींच, तीन चक्कों वाली फटफटिया है। इंडियां में मिट्टी उठाने और खाई खोदने की बडी बडी मषीने काम करती है। इंडिया में मजदूरी और मजदूरों का भी रूतबा है। पर भारत में भूखे पेट जमीन खोदते -खोदते जमीन में ही दो-जख हो जाते हैं यहां के मजदूर। इंडिया में प्यास बुझाने के लिये पेप्सी है, बीयर है तो भारत में पानी के लिये आज भी मीलों चलना पडता है। इंडिया के तकरीबन हर घर में ‘इ-मेल’ है, मोबाइल फोन है पर भारत में आज भी साधारण डाक समय पर नहीं मिलती। इंडिया में रे- बैन के एक चष्में पर हजारों रूपये खर्च कर दिये जाते हैं पर भारत में आज भी आबादी का एक बडा तबका दो जून की रोटी के लिये कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। क्या- क्या कहा जाये आमीर भाई!


कुल मिला कर बस यही समझिये कि इंडिया में अय्यासी है तो भारत में संघड्र्ढ। सच तो यह है कि इंडिया को जन्म दिया है उस अकूत दौलत ने जो बिना किसी विषेड्ढ प्रयास के मिल जाती है। ये दौलत रिष्वत की भी हो सकती है और घपले- घोटाले की भी। आदमी से आदमी के उस फासले की भी जो आदमी को ही बेच रहा है। आमीर जी इस दोड्ढ में गुनहगार कहीं न कहीं आप भी हैं। मैंने आपकी फिल्म डाउनलोड कर के देखी। बहुत अच्छा सब्जेक्ट है, परंतु सब्जेक्ट के साथ आब्जेक्ट पूरी स्टोरी से गायब है। इसे हम क्या मानें टी आर पी का खेल या कलात्मक चित्रों का बाजारीकरण?


बवजूद इसके फिल्म पूरी व्यवस्था के मुंह पर तमाचा तो है ही. ऐसा तमाचा जिसके पास मरे हुए किसान के लिए तो योजना है लेकिन उसके लिए नहीं जो जीना चाहता है. ये उन पत्रकारों पर भी तमाचा है जो लाइव आत्महत्या में रुचि रखते हैं पर तिल-तिल कर हर रोज मरने वाले में नहीं।


फिल्म न तो नत्था किसान के बारे में है और न ही किसानों की आत्महत्या के बारे में बल्कि उन किसानों को भी फोकस करती है जो पहले खेतों में हल जोतकर भारत को सोने की चिडिया बनाता था और अब शहरों में कुदाल चलाकर उसी इंडिया के लिए आलीशान बिल्डिंग  बना रहा है।


सच तो मानना ही पडेगा कि आज मुद्दा गरीबी का नहीं बल्कि मुद्दा जीने का है.. चाहे वो मिट्टी खोदकर जीये या मर कर. क्या फर्क पड़ता है गांव की मिट्टी खोद कर मरें या कामनवेल्थ गेम्स के लिए मिट्टी खोदते हुए।


ऐसे समय में फिल्म को अंतरराष्ट्रीय स्तर सराहा जा रहा है कि कामनबेल्थ में आने वाले मेहमान कह सके कि 2010 का यह अंतराड्ढट्रीय खेल उस देष मे हुआ था जहां पिपली जैसा गांव है, लक्खा जैसा किसान है, भूख है। पर इस सब के बाद बाजारबाद का एक ऐसा चेहरा भी है जहां कुछ भी बेचा और खरीदा जा सकता है।


....पर आप ऐसा नहीं कहेंगे क्योंकि आपने तो इंडिया को छूआ तक नहीं है। आपकी फिल्म भारत की दिषा और दषा को जो ले कर चलती है न ? क्या मानते  हैं आप?