शनिवार, 21 अप्रैल 2012


क्या मीडिया  तथाकथित बाबाओं  को
 सनसनी बनाकर  विज्ञान को गूंगा कर रहा है? 


क्या टीवी मीडिया मूल रूप से छद्म विज्ञान और अंधविश्वास को महिमामंडित कर के  उसे  सनसनी में बदल देने की कोशिश कर रहा है?
धन कुबेर ज्योतिष और बाबा के कार्यक्रम अधिकतर चैनलों पर प्रसारित हो रहे  हैं पर  विज्ञान को लोकप्रिय बनाने वाले कार्यक्रम नहीं के बराबर है - ऐसा क्यूँ  हो रहा है ?

                                        हम आपके विचार जानना चाहते है -.


नवभारत टाइम्स 
फोकस

राजेश मिश्र

कुछ दिनों पहले अपने गांव गया था। यार-दोस्तों के बीच चिढ़ने-चिढ़ाने को लेकर चर्चा शुरू हो गई। इस बीच हम बचपन के दिनों में चले गए। चिढ़ाने में तब इतना मजा आता था कि पूछिए मत। कोई खास शब्द मुंह से निकला नहीं कि सामने वाला अजीब हरकतें करने लगता था और पिफर हंसी के फव्वारे चारों तरफ फूट पड़ते थे। हमारे गांव में मणि काका हुआ करते थे। फ़िल्में देखने का बहुत शौक था। बस गांव वालों ने हीरो कहना शुरू कर दिया। कोई उन्हें अशोक कुमार, दिलीप कुमार तो कोई राजकुमार पुकारने लगा। कुछ दिनों तक तो वह भी खूब मजे ले रहे थे। लेकिन अचानक उन्होंने चिढ़ना शुरू कर दिया। पिफर क्या था, बच्चों के लिए वह खिलौना ही बन गए। पूरी टोली होती थी चिढ़ाने वालों की।
हालत यह हो गई कि चिढ़ा रहे बच्चों पर वह पत्थर तक बरसाने लगे। बाद में उन्होंने चिढ़ना बंद कर दिया और इस तरह एक मजेदार खेल पर विराम लग गया। अक्सर सोचता हूं कि आखिर लोग चिढ़ते ही क्यों हैं? दरअसल, चिढ़ना-चिढ़ाना मामूली बातों से शुरू होता है। हमारे पड़ोस में एक सज्जन रहते थे। बहुत ही भले और नेक पुरुष। एक बार हम लोग कंचा खेल रहे थे। उस वक्त वह अपने ऑफिस जा रहे थे। हम लोगों को खेलते देख उन्होंने कहा- तुम लोग घर जाकर पढ़ाई करो, शाम को जब ऑफिस  से लौटूंगा तो सबको तीन-तीन जलेबियां खिलाऊंगा। उस वक्त हम लोग घर चले गए। लेकिन शाम को गली में सब लोग उनका बेसब्री से इंतजार कर रहे थे।
देखते ही हमने पूछा- चाचा हमारी जलेबियां? उन्होंने कहा- कल खिलाऊंगा। दरअसल, वह स्वभाव से कंजूस थे। उन्होंने सोचा होगा कि बच्चे भूल जाएंगे। लेकिन हम कहां पीछा छोड़ने वाले थे। रोजाना उनके ऑफिस जाते और लौटते वक्त जलेबियों की डिमांड होने लगी। दो-चार दिन तो ठीक रहा, लेकिन इसके बाद वे इस बात से चिढ़ने लगे। किसी के मुंह से तीन जलेबी निकली नहीं कि उनका पारा सातवें आसमान पहुंच जाता था। गली से गुजरते वक्त उनको तीन जलेबी कह कर चिढ़ाने में हमें बहुत मजा आता था। जो एक बार किसी बात से चिढ़ गया, फिर तो उसकी शामत ही आ जाती थी। गांव में एक लड़का अचानक बंदरों की तरह हूप-हूप करने पर चिढ़ने लगा। फिर  क्या था, गांव के शैतान लड़के उसके पीछे पड़े रहते थे। शरीर से वह बलिष्ठ था। चिढ़ाने के बाद उसके हाथ जो लग जाता, उसकी खैर नहीं थी। एक चंदू हलवाई थे। उनके सामने जाकर आप बस अपने सिर पर हाथ रख दें तो वे आगबबूला हो जाते थे। बचपन के उन दिनों को याद करते ही मन रोमांच से भर जाता है। आज गांव जाता हूं तो न कोई चिढ़ने वाला मिलता है, ना चिढ़ाने वाला।