गुरुवार, 9 सितंबर 2010

कॉमन वेल्थ के बहाने एक बेहूदा चितंन

राजेश मिश्र

बचपन से सुनने को मिला है कि दिल्ली सात बार उजड़ी और बसी है।‘कॉमन  वेल्थ गेम’ में तो अब इसका नम्बर आठवां है। फिर भी कुछ बात है कि दिल्ली वालों की हस्ती मिटती नहीं- हसरतें बची रहती है। राष्ट्रªकवि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में कहें तो ‘वैभव की दिवानी दिल्ली, कृड्ढक मेघ की रानी दिल्ली, कदाचार ,अपमान ,व्यंग्य की चुभती हुई कहानी दिल्ली और दो दिनों के डिस्कों डांस में नाची हुई नादान दिल्ली’ पर जितना कुछ कहा जाये, कम है।

इस ‘कम’ के कमसीनी को अब एक बार फिर से संवारा जा रहा है और इसे पूरे जतन के साथ संवारने में जुटी हैं दिल्ली की मुख्यमंत्री   महोदया माननीय शीला जी दीक्षित । ‘दिल्ली मेरी जान, दिल्ली मेरी शान’ पर थिरकने वाली मुख्यमंत्री साहिबा की आखों को यदि आप भी गौर से देखेंगे तो आप को भी पूरा काॅमन गेम दिख जायेगा। ये गेम ही तो है अपनी दिल्ली पर नाज़ होने का पर मैं दिल्ली की आन, बान, और शान के बारे में कुछ अलग तरीके से सोच रहा हूं। सोच रहा हूं कि क्या ये वही दिल्ली है जिसे कभी पांडवों का इंद्रप्रस्थ कहा जाता था? जिसे आर्य पुत्रों ने बसाया और मुगलों ने रंगीनियां दी थी?फिर अंग्रजों ने शानों- शौकत दी, और आखिरी में हमने इसे लोकतंत्र का अमली जामा पहनाकर अपने अधिकार में ले लिया ?
अधिकार में ले लिया तभी तो दिल्ली भारत का दिल बन गया। या यूं कहा जाये कि दिल्ली भारत बन गई या भारत दिल्ली। बात एक है।

कहने की जरूरत नहीं कि दिल्ली न जाने कितने ही राजाओं बादशाहों के उत्थान -पतन की गवाह है। इसी दिल्ली ने कितने ही सन्तों फकिरों की वाणी अपने कानों से सुनी है और न जाने कितने ही सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक आंदोलन कर सूत्रपात इसी दिल्ली से हुआ है। इसी दिल्ली ने अनेक लेखकों, कवियों, साहित्यकारों को न केवल जन्म दिया बल्कि अपनी गोद में पाला भी है और पोसा भी है । मेरे द्वारा लिखे गये शब्द पालना और पोसना थोडा गंभीरता से लीजियेगा।

पूरे एक हजार वड्र्ढ तक मुसलमान यहां सत्ता में रहे। सबने अपने- अपने तरीके से इसी दिल्ली को अपनाया सजाया और संवारा और उजाड़ा भी। यहां तक कि अंग्रेज भी दिल्ली को दिल दे बैठे। इसी दिल्ली में जहां खुशियों के नगाड़े बजे वहीं असहाय लोगों की जित्कार भी गूंजी। ये वही शहर है जहां जश्न भी हुआ और खून की नदियां भी बही।

इसलिये तो कहता हूं कि दिल्ली देखने की भी चीज है और दिखाने की भी। कहता हूं कि -

३दिल्ली देखी दिल वाले देखे,

गोरे देखे, काले देखे,

बैंड बजाने वाले देखे।

जी हां अब आगे-आगे देखिये होता है क्या?

असल में होना न होना तो लोकतंत्र के उस खंबे पर टिका हुआ है जहां हुक्मरान रहते हैं। वे चाहे तो इस लोकतंत्र में कुछ भी कर सकते हैं- करा सकते हें। चाहे तो दिल्ली तोड- फोड़ कर बसा सकते हैं। चाहे तो बाबरी गिरा सकते हैं, मंदिर बना सकते हैं, फिर- फिर से दंगे करा सकते हैं शराब पिला सकते हैं, धूम मचा सकते हैं, मंहगाई बढ़ा सकते हैं, मंहगे खेल का नाम ‘काॅमन गेम’ रखकर आम आदमी को दिल्ली का झूठा सपना दिखा सकते हैं।

जी हां, झूठे का बोल-बाला ही तो है प्रगतिशीलता। फिर बात वहीं आ कर टिक जाती है कि प्रगतिशीलता का रौब झाड़ने वाली मैट्रो वाली इस दिल्ली में आखिर कहां ढूंढ़ा जाये उस दिल्ली को, जो कभी औरंगजेब के संगीत प्रेम और उसकी विरक्ति का गवाह था?

कहां ढूंढे़ उस दिल्ली को, जहां की खसूसियत थी कि नये से नया आदमी भी चांदनी चैक और कानौत  प्लेस में रम जाने के बाद दिल्लीवाला बन जाता था? कहां गया वह दिल्ली का घंटाघर, जहां रात की चाय दिलक्य हुआ करती थी और कनॅाट प्लेस के काॅफी हाउस में पत्रकार पैदा होते थे। अब ये सब कुछ दिल्ली से गायब है।

गायब है, बहादुर्याह की यादें ,गालिब की गजलें, बाद्याहों, राजाओं और राजनेताओं की परवान चढ़ती व्यान  । इसलिये अब दिल्ली दिल वालों की नहीं रहकर धन वालों की हो गई है। अब चांदनी चैक यानी पुरानी दिल्ली भी नई दिल्ली बन गई है। अब यहां झुके हुये लोग नहीं हैं, संघर्घो  की कहानी नहीं है। थोड़ा गौर कीजिये तो समझ में आ जायेगा कि अब गांव कस्बे में वो नारे नहीं है जिसमे  कभी लिखा होता था ‘चलो दिल्ली’।

अब गांव खुद चल कर दिल्ली आ गया है। झुग्गियों में एक अलग तरह की अमीरी पल रही है। सेल फोन है, कलर टीवी है , मारुति वैन है । सब आधुनिक दिल्ली का ही तो कमाल है भाई। सड़क से रिक््या गायब है, है तो खाली नहीं हैं । घर से निकलो तो मैट्रो है। मैट्रो से उतरते ही ‘फीडर’ है ।

दिल्ली में मंहगी शराब  का अच्छा खासा बाजार है, सेक्स का खूबसूरत धंधा है, इच्छाधारी बाबा हैं, उनकी बीन पर थिरकती खूबसूरत नागिनों की टोली है। इसलिये तो दिल्ली में अब मजबूरी नहीं मौज है। झूमिये- नाचिये मौज मनाइये।

अब यहां संस्कृतिकरण भी ‘मोर्डेन ’ हो चुकी है। हां कुछ नई सभ्यताओं का विकास जरुर हुआ है। ये सभ्यताएं फलती फुलती हैं गन्दे नालों के आस पास। जहां झुग्गी बस्तियों का विकास नये बोट बैंक की बाट जोहता है।

मगर फिर भी दिल्ली इस मुल्क की धड़कन है और बनी रहेगी। ऐसी धड़कन, जहां हर रोज एक नये ्यहर पलते रहेंगे। और हम सिर्फ और सिर्फ सुंदर इमारतों के डरावने सपनों में जी रहें हैं , जीते रहेंगे।

बाबजूद इसके दिल्ली एक जवां शहर   है, क्योंकि दिल्ली को बुढ़ापा पसंद नहीं है। क्या आप नहीं मानते कि भीष्म की तरह जीने को अभिशप्त है यह शहर ?

इसलिये मैं कहता हूं कि दिल्ली किसी से दिल नहीं लगाती। और जिससे लगाती है तो बस लगा ही लेती है।

लेकिन मेरी दिल्ली हो या आपकी, आज भी है दिलवालों की। यदि आपने दिल्ली से दिल लगा लिया तो सताएगी भी और प्यार भी करेगी।

दिल्ली से भागिये तो मोहपा्य में ऐसा जकडे़गी कि आप निकल न पायेंगे। यमुना के रंग का पानी काला है और दिल्ली आना हो तो काला पानी ही समझिये। आजीवन कारावास!