शनिवार, 26 नवंबर 2011

क्या ये व्यवस्था पर पड़ा थप्पड़ है ?


दिल्ली में एनडीएमसी सभागार में आयोजित श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफ्को   साहित्य समारोह  में शिरकत करने पहुंचे शरद पवार संबोधन  कर वापस लौट रहे थे तभी हरविंदर सिंह नाम के एक युवक ने उन्हें थप्पड़ मार दिया।  हालाँकि यह व्यक्ति पेशे से ट्रांसपोर्टर है। यानि कमाई भी कर रहा है।  जाहिर है एक ट्रांसपोर्टर तो जरूर इतना कमा रहा होगा, जिससे उसका परिवार  अच्छी तरीके  से चल सके । फिर आखिर क्या कारण था देश के एक कद्दावर  नेता पर अप्रत्याशित हमला करने का ?  क्या वाकई महंगाई ही मुख्य समस्या उस युवक के लिए थी या कुछ और था  ?  इतने बड़े देश में वाकई महंगाई का असर केवल उसी पर पड़ रहा था ?
 गौरतलब है नेताओं  पर  जूते चलाने का एक सिस्टम सा बनता जा रहा है. कई बार जूते और चप्पल  नेताओं के ऊपर फेंके  जा चुके हैं .कुछ समय  पहले फारुख अब्दुल्ला पर एक पुलिसकर्मी ने जूता फेंका था। कोर्ट परिसर में पूर्व संचार मंत्री  सुखराम की  पिटाई हो या छेड़छाड़ के मामले में सजा सुनाए जाने के बाद डीजीपी राठौर पर कोर्ट परिसर में हुआ हमला हो। गृह मंत्री पी चिदंबरम पर फेंका गया जूता हो या सुरेश कलमाड़ी पर सीबीआई कोर्ट के बाहर फेंकी गई चप्पल। सिर्फ इतना ही नहीं एक रैली के दौरान  प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर भी जूता फेंकने की कोशिश हो या  भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी पर अपने ही कार्यकर्ताओं द्वारा जूता फेंकने की घटना। इसे छोटा-मोटा आक्रोश समझना एक भूल होगी।

...परंतु हम इन बातों और बहसों से हट कर यदि गहराई में जाये तो मुख्य बातें लोकतंत्र के लचर व्यवस्था की है। एक ऐसी व्यवस्था कि जिसे जनता पचा नहीं पा रही है। ताजा उदाहरण की एक बानगी को देखिये। अगर विजय माल्या के किंगफिशर  को घाटा  होता है तो भारतीय स्टेट बैंक से लेकर प्रधनमंत्री तक चिंतित नजर आते हैं पर भारत के ही गांव में भूख से मरने वाले लोगों को कफन भी आसानी से नसीब नहीं होता है। उसके लिये कोई राजनेता चिंतित नहीं होता है। आखिर इसे क्या कहेंगे आप?

व्यवस्थाओं से निराश होकर या वर्तमान हालात से तंग आकर, कारण चाहे कुछ भी हो, थप्पड़ चूँकि देश को चलाने की जिम्मेदारी संभाले सरकार के मंत्री को पड़ी थी तो उसकी गूंज तो सुनाई पड़नी ही थी। लेकिन अफसोस इस बात   क़ी  है कि इस थप्पड़ के  मुद्दे पर अब तक कोई चर्चा  नहीं  हुई । शायद करना भी नहीं चाहते।
... लेकिन    सवाल यह है जब भी कोई घटना हमारे स्वभाव के विपरीत घटित होती हैं तो बजाये उसकी जड़ तलाशने के हम निजी निष्कर्ष पर पहुंच कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री क्यों समझ लेते हैं?

एक बात हमें साफ तौर पर समझ लेनी चाहिए कि शरद पवार को थप्पड़ महज प्रचार पाने का हथकण्डा नहीं था। याद कीजिये जब   अमेरिका के राष्ट्रपति पर मुंतजर अल जैदी ने जूता फेंका था तो उसे वैश्विक समर्थन मिला था। और इसीलिए जब हरविंदर सिंह जैसा युवक आवेश में किसी मंत्री को थप्पड़ मारता है तो असभ्य होते हुए भी हम सिर्फ उसे दोषी नहीं ठहरा सकते।

माना कि एक सभ्य लोकतांत्रिक समाज में जनता के  नुमाइंदे को  खुलेआम थप्पड़ मारना कतई जायज नहीं है लेकिन जो परिस्थितियां और जो हालात इस देश के सामने हैं उसे आखिर बर्दाश्त कब तक किया जा सकता है? हर चीज की एक सीमा होती है लेकिन हम यह क्यों भूल जाते हैं कि  सीमा की भी एक सीमा होती है, जिसे लांघने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए। हालाँकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि लोकतांत्रिक समाज में ऐसी प्रवृत्तियाँ विकसित होंगी तो किसी भी लोकतांत्रिक संस्था का काम करना मुश्किल हो जाएगा लेकिन ऐसी प्रवृत्तियां विकसित न हों इसके प्रयास की जिम्मेदारी कौन लेगा? निहायत ही इसकी जिम्मेदारी उन्हीं नेताओं को लेनी होगी जो देश चलाते हैं और आखिरकार गुस्सा भी उन्ही के खिलाफ है।

दरअसल आम जनता किसी फैसले पर तब पहुँचती है जब उसकी आशाओं, आकांक्षाओं और भावनाओं के साथ खिलवाड़ होता है। आज भले ही हम इस घटना की जितनी भी निंदा कर लें लेकिन हमें चर्चा लोगों की उन मनोदशाओं पर भी करनी चाहिए जो उसे आपा खोने पर विवश करती है। इसे सिर्फ एक घटना मान लेना भी गलत होगा क्योंकि थप्पड़ मारना  किसी का भी शौक नहीं होता। यह सच है कि लोकतंत्र में अपना विरोध दर्ज कराने के लिए लोकतांत्रिक तरीकों का इस्तेमाल करना चाहिए लेकिन धरना, प्रदर्शन  और जुलुस  के बिरोध में  लोकतांत्रिक तरीकों पर पुलिसिया जुल्म भी तो इन्हीं नेताओं की शह पर होता है  फिर अव्यवस्थाओं के भंवर में फँसा आम आदमी क्या करे? गौरतलब है कि राहुल गाँधी को काले  झंडे  दिखा रहे युवकों को मारने -पिटने में मंत्री भी शामिल थे। फिर उन युवकों से हम संयम की उम्मीद क्यों करते हैं?

इन सबके बीच विचारणीय यह भी है कि राजनीति पर जब तक स्वार्थनीति हावी रहेगा ऐसी घटनाएँ रोकी नहीं जा सकती। इसलिए निजी  हित को छोड़कर नेताओं को जनहित की तरफ भी घ्यान देना चाहिए। 

फ्रांस की 1756 की क्रांति का इतिहास साक्षी है, जो कि कोई सुनियोजित न होकर जनता के आक्रोश का परिणाम थी ! जब जनता किंग लुईस के शासन में महंगाई और भ्रष्टाचार से परेशान होकर  सड़कों   पर उतरी और तो पूरे राजघराने को ही मौत के घाट उतारते हुए अपने साथियों को ब्रस्सील जेल को तोड़कर बाहर निकाल कर क्रांति की शुरुआत  हुई थी ! परिणामतः वहां लोकतंत्र के साथ - साथ तीन नए शब्द Liberty , Equality , Fraternity अस्तित्व में आये ! वास्तव में उस समय राजघराने का जनता की तकलीफों से कोई सरोकार नहीं था ! इसका अंदाजा हम उस समय की महारानी मेरिया एंटोनियो के उस वक्तव्य से लगा सकते हैं जिसमें  भुखमरी और महंगाई से बेहाल जनता से कहा था कि ‘अगर ब्रेड नहीं मिल रही तो केक क्यों नहीं खाते !’

ऐसी ही एक और क्रांति सोवियत संघ में भी हुई थी ! जिसका परिणाम वहां की जारशाही का अंत के रूप में हुआ था ! कारण लगभग वहां भी वही थे जो कि फ़्रांस में थे जैसे खाने-पीने की वस्तुओं का आकाल , भ्रष्टाचार में डूबी सत्ता और सत्ता के द्वारा जनता के अधिकारों का दमन ! सोवियत संघ में लोकतंत्र तो नहीं आया परन्तु वहां कम्युनिस्टों की सरकार बनीं !

कहने में अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिये कि जब अर्थव्यवस्था ध्वस्त होने के कगार पर हो, मंहगाई के साथ - साथ बेरोजगारी दिन - प्रतिदिन बढ़ रही हो, और सरकार अपनी नीतियों से जनता की आवाज को दबाने कोशिश कर रही हो तो जनता    सड़का पर उतरकर अपना आक्रोश प्रकट करने लग जाती है। और यदि समय रहते हालात को न संभाला गया तो यही जनता भयंकर रूप लेकर  सत्ताधारियों ने से पीछे भी नहीं हटती जिसका गवाह इतिहास के साथ -साथ अभी हाल ही में हुए कुछ देशों के घटनाचक्र है ! एक तरफ कभी अमेरिका और ब्रिटेन के लोग आर्थिक मंदी और बेरोजगारी के चलते प्रदर्शन करते है तो वही दूसरी तरपफ मिस्र की जनता सड़कों पर है, जिसके चलते मिस्र आज भी सुलग रहा है !

भारत में आंकड़ो की बजीगीरी सरकार चाहे जितनी कर ले पर वास्तविकता इससे कही परे है ! बाजार में रुपये की कीमत लगातार गिर रही है । गौरतलब है कि रुपये की कीमत गिरने का मतलब विदेशी भुगतान का बढ़ जाना है अर्थात पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतें और बढ़ेगी ही जिससे कि अन्य वस्तुओ की कीमतों में भी इजाफा होगा ! महंगाई को सरकार पता नहीं क्यों आम आदमी की समस्या नहीं मानना चाहती ?

जनता का यह आक्रोश कोई विकराल रूप ले ले उससे पहले सरकार को आत्मचिंतन कर इस सुरसा रूपी महंगाई की बीमारी से जनता को निजात दिलाना ही होगा, क्योंकि एक बार राम मनोहर लोहिया जी ने भी कहा था कि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं किया करती है।

कहने की जरुरत नहीं पड़ती कि किसी भी समस्या के लिए जब भी संघर्ष होता है तो एक अजीब तरह की उसमे गर्मी होती है, जो केवल हरविंदर जैसे युवकों में नहीं, सबको महसूस होती है। और उस संघर्ष का कारवां अपने आप भी बन जाता है।

हरविंदर ने जरूर अपने लिए ही थप्पड़ मारा होगा। कुछ नाम हो, आम  आदमी उसे जाने और उसे समाज में कुछ स्थान मिले। यही भूख उसे इस काम के लिए प्रेरित कर सकती है।

कहना चाहूंगा कि थप्पड़ राजनीति   से मुद्दे का हल नहीं है। अब क्या शरद पवार महंगाई को रोक लेगे? ये सवाल अब भी अनुत्तरित है। भला शरद पवार जैसे कद्दावर नेता पर भी कोई प्रभाव यह थप्पड़ छोड़ पायेगा कहना भी मुश्किल है।

संभवतः मशहूर शायर राहत की इन पंक्तियों की याद आती है,

अगर खिलाफ हैं कोई, तो होने दो,

जान थोड़ी है,

ये सब धुआं है

कोई आसमान थोड़ी है।

लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में,

यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है।

अर्थात् महंगाई के लिए महज केंद्र सरकार तो जिम्मेदार नहीं है, इसलिए अब यदि विपरीत प्रभाव होगा भी तो सरकार में शामिल दलों और अन्य राज्य सरकारों को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। अंततः सरकार करे भी तो क्या क्योंकि मामला अब अंतरराष्ट्रीय कीमतों से जुड़ गया है।




राजेश मिश्र



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