शनिवार, 14 जुलाई 2012

महानगरों की ट्रेफिक देखकर यमराज ने दिया का इस्तीफा


महानगरों की ट्रेफिक देखकर
 यमराज ने दिया का इस्तीफा 


यमराज के इस्तीफा से मच गया हाहाकार 
इंद्र ने देवताओं की सभा बुलाई 
यमराज को कॉल लगाई 
उधर से कृप्या जाँच लें कि एक  आवाज़  आई ...
नए -नए बदलने की इस आदत पर 
इंद्र को खुन्दक  आई ..

किसी तरह यम का नंबर मिल गया ,
'तुझसे है मेरा नाता पुराना कोई '
का कॉलर टयून सुनाया 
तहकीकात करने पर पता लगा,
यमदेव पृथ्वी पर रोमिंग पे हैं ,

अंत में की तरह यमराज हुए 
इंद्र के दरबार में पेश ,
इंद्र ने पूछा -
यम क्या है इस्तीफे का केस ?

यमराज  तपाक से बोले
हे इन्द्रदेव -
मल्टीप्लेक्स में जब भी जाता हूं   
भैसें की पार्किंग न होने की वजह से 
बिन फिल्म देखे ही लौट आता  हूं ..

मैक्ड़ोल्ड्स वाले तो देखते ही मेरी 
इज्जत उतार  देतें हैं, ढाबे में जाकर
 खाने  की सलाह देते हैं ..

पृथ्वीलोक जाता  हूं तो भैसें पर मुझे 
देखकर पृथ्वीवासी हँसते है ,
कर न होने के तानें कसते हैं. 

भैसें पर बैठे -बैठे बड़े झटके हो रहे हैं 
अब तो आकाश  में भी ट्रैफिक बढ़ रहे हैं ..

हे इन्द्रदेव, 
मेरे इस दुःख को समझो 
इस चार पहिये के जानवर कि  जगह 
एक मर्सिडीज़ दे दो 
वर्ना मेरा इस्तफा अपने साथ ले जाओ 
ये मौत का कम किसी और से करवाओ ..

शनिवार, 21 अप्रैल 2012


क्या मीडिया  तथाकथित बाबाओं  को
 सनसनी बनाकर  विज्ञान को गूंगा कर रहा है? 


क्या टीवी मीडिया मूल रूप से छद्म विज्ञान और अंधविश्वास को महिमामंडित कर के  उसे  सनसनी में बदल देने की कोशिश कर रहा है?
धन कुबेर ज्योतिष और बाबा के कार्यक्रम अधिकतर चैनलों पर प्रसारित हो रहे  हैं पर  विज्ञान को लोकप्रिय बनाने वाले कार्यक्रम नहीं के बराबर है - ऐसा क्यूँ  हो रहा है ?

                                        हम आपके विचार जानना चाहते है -.


नवभारत टाइम्स 
फोकस

राजेश मिश्र

कुछ दिनों पहले अपने गांव गया था। यार-दोस्तों के बीच चिढ़ने-चिढ़ाने को लेकर चर्चा शुरू हो गई। इस बीच हम बचपन के दिनों में चले गए। चिढ़ाने में तब इतना मजा आता था कि पूछिए मत। कोई खास शब्द मुंह से निकला नहीं कि सामने वाला अजीब हरकतें करने लगता था और पिफर हंसी के फव्वारे चारों तरफ फूट पड़ते थे। हमारे गांव में मणि काका हुआ करते थे। फ़िल्में देखने का बहुत शौक था। बस गांव वालों ने हीरो कहना शुरू कर दिया। कोई उन्हें अशोक कुमार, दिलीप कुमार तो कोई राजकुमार पुकारने लगा। कुछ दिनों तक तो वह भी खूब मजे ले रहे थे। लेकिन अचानक उन्होंने चिढ़ना शुरू कर दिया। पिफर क्या था, बच्चों के लिए वह खिलौना ही बन गए। पूरी टोली होती थी चिढ़ाने वालों की।
हालत यह हो गई कि चिढ़ा रहे बच्चों पर वह पत्थर तक बरसाने लगे। बाद में उन्होंने चिढ़ना बंद कर दिया और इस तरह एक मजेदार खेल पर विराम लग गया। अक्सर सोचता हूं कि आखिर लोग चिढ़ते ही क्यों हैं? दरअसल, चिढ़ना-चिढ़ाना मामूली बातों से शुरू होता है। हमारे पड़ोस में एक सज्जन रहते थे। बहुत ही भले और नेक पुरुष। एक बार हम लोग कंचा खेल रहे थे। उस वक्त वह अपने ऑफिस जा रहे थे। हम लोगों को खेलते देख उन्होंने कहा- तुम लोग घर जाकर पढ़ाई करो, शाम को जब ऑफिस  से लौटूंगा तो सबको तीन-तीन जलेबियां खिलाऊंगा। उस वक्त हम लोग घर चले गए। लेकिन शाम को गली में सब लोग उनका बेसब्री से इंतजार कर रहे थे।
देखते ही हमने पूछा- चाचा हमारी जलेबियां? उन्होंने कहा- कल खिलाऊंगा। दरअसल, वह स्वभाव से कंजूस थे। उन्होंने सोचा होगा कि बच्चे भूल जाएंगे। लेकिन हम कहां पीछा छोड़ने वाले थे। रोजाना उनके ऑफिस जाते और लौटते वक्त जलेबियों की डिमांड होने लगी। दो-चार दिन तो ठीक रहा, लेकिन इसके बाद वे इस बात से चिढ़ने लगे। किसी के मुंह से तीन जलेबी निकली नहीं कि उनका पारा सातवें आसमान पहुंच जाता था। गली से गुजरते वक्त उनको तीन जलेबी कह कर चिढ़ाने में हमें बहुत मजा आता था। जो एक बार किसी बात से चिढ़ गया, फिर तो उसकी शामत ही आ जाती थी। गांव में एक लड़का अचानक बंदरों की तरह हूप-हूप करने पर चिढ़ने लगा। फिर  क्या था, गांव के शैतान लड़के उसके पीछे पड़े रहते थे। शरीर से वह बलिष्ठ था। चिढ़ाने के बाद उसके हाथ जो लग जाता, उसकी खैर नहीं थी। एक चंदू हलवाई थे। उनके सामने जाकर आप बस अपने सिर पर हाथ रख दें तो वे आगबबूला हो जाते थे। बचपन के उन दिनों को याद करते ही मन रोमांच से भर जाता है। आज गांव जाता हूं तो न कोई चिढ़ने वाला मिलता है, ना चिढ़ाने वाला।

शनिवार, 26 नवंबर 2011

क्या ये व्यवस्था पर पड़ा थप्पड़ है ?


दिल्ली में एनडीएमसी सभागार में आयोजित श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफ्को   साहित्य समारोह  में शिरकत करने पहुंचे शरद पवार संबोधन  कर वापस लौट रहे थे तभी हरविंदर सिंह नाम के एक युवक ने उन्हें थप्पड़ मार दिया।  हालाँकि यह व्यक्ति पेशे से ट्रांसपोर्टर है। यानि कमाई भी कर रहा है।  जाहिर है एक ट्रांसपोर्टर तो जरूर इतना कमा रहा होगा, जिससे उसका परिवार  अच्छी तरीके  से चल सके । फिर आखिर क्या कारण था देश के एक कद्दावर  नेता पर अप्रत्याशित हमला करने का ?  क्या वाकई महंगाई ही मुख्य समस्या उस युवक के लिए थी या कुछ और था  ?  इतने बड़े देश में वाकई महंगाई का असर केवल उसी पर पड़ रहा था ?
 गौरतलब है नेताओं  पर  जूते चलाने का एक सिस्टम सा बनता जा रहा है. कई बार जूते और चप्पल  नेताओं के ऊपर फेंके  जा चुके हैं .कुछ समय  पहले फारुख अब्दुल्ला पर एक पुलिसकर्मी ने जूता फेंका था। कोर्ट परिसर में पूर्व संचार मंत्री  सुखराम की  पिटाई हो या छेड़छाड़ के मामले में सजा सुनाए जाने के बाद डीजीपी राठौर पर कोर्ट परिसर में हुआ हमला हो। गृह मंत्री पी चिदंबरम पर फेंका गया जूता हो या सुरेश कलमाड़ी पर सीबीआई कोर्ट के बाहर फेंकी गई चप्पल। सिर्फ इतना ही नहीं एक रैली के दौरान  प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर भी जूता फेंकने की कोशिश हो या  भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी पर अपने ही कार्यकर्ताओं द्वारा जूता फेंकने की घटना। इसे छोटा-मोटा आक्रोश समझना एक भूल होगी।

...परंतु हम इन बातों और बहसों से हट कर यदि गहराई में जाये तो मुख्य बातें लोकतंत्र के लचर व्यवस्था की है। एक ऐसी व्यवस्था कि जिसे जनता पचा नहीं पा रही है। ताजा उदाहरण की एक बानगी को देखिये। अगर विजय माल्या के किंगफिशर  को घाटा  होता है तो भारतीय स्टेट बैंक से लेकर प्रधनमंत्री तक चिंतित नजर आते हैं पर भारत के ही गांव में भूख से मरने वाले लोगों को कफन भी आसानी से नसीब नहीं होता है। उसके लिये कोई राजनेता चिंतित नहीं होता है। आखिर इसे क्या कहेंगे आप?

व्यवस्थाओं से निराश होकर या वर्तमान हालात से तंग आकर, कारण चाहे कुछ भी हो, थप्पड़ चूँकि देश को चलाने की जिम्मेदारी संभाले सरकार के मंत्री को पड़ी थी तो उसकी गूंज तो सुनाई पड़नी ही थी। लेकिन अफसोस इस बात   क़ी  है कि इस थप्पड़ के  मुद्दे पर अब तक कोई चर्चा  नहीं  हुई । शायद करना भी नहीं चाहते।
... लेकिन    सवाल यह है जब भी कोई घटना हमारे स्वभाव के विपरीत घटित होती हैं तो बजाये उसकी जड़ तलाशने के हम निजी निष्कर्ष पर पहुंच कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री क्यों समझ लेते हैं?

एक बात हमें साफ तौर पर समझ लेनी चाहिए कि शरद पवार को थप्पड़ महज प्रचार पाने का हथकण्डा नहीं था। याद कीजिये जब   अमेरिका के राष्ट्रपति पर मुंतजर अल जैदी ने जूता फेंका था तो उसे वैश्विक समर्थन मिला था। और इसीलिए जब हरविंदर सिंह जैसा युवक आवेश में किसी मंत्री को थप्पड़ मारता है तो असभ्य होते हुए भी हम सिर्फ उसे दोषी नहीं ठहरा सकते।

माना कि एक सभ्य लोकतांत्रिक समाज में जनता के  नुमाइंदे को  खुलेआम थप्पड़ मारना कतई जायज नहीं है लेकिन जो परिस्थितियां और जो हालात इस देश के सामने हैं उसे आखिर बर्दाश्त कब तक किया जा सकता है? हर चीज की एक सीमा होती है लेकिन हम यह क्यों भूल जाते हैं कि  सीमा की भी एक सीमा होती है, जिसे लांघने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए। हालाँकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि लोकतांत्रिक समाज में ऐसी प्रवृत्तियाँ विकसित होंगी तो किसी भी लोकतांत्रिक संस्था का काम करना मुश्किल हो जाएगा लेकिन ऐसी प्रवृत्तियां विकसित न हों इसके प्रयास की जिम्मेदारी कौन लेगा? निहायत ही इसकी जिम्मेदारी उन्हीं नेताओं को लेनी होगी जो देश चलाते हैं और आखिरकार गुस्सा भी उन्ही के खिलाफ है।

दरअसल आम जनता किसी फैसले पर तब पहुँचती है जब उसकी आशाओं, आकांक्षाओं और भावनाओं के साथ खिलवाड़ होता है। आज भले ही हम इस घटना की जितनी भी निंदा कर लें लेकिन हमें चर्चा लोगों की उन मनोदशाओं पर भी करनी चाहिए जो उसे आपा खोने पर विवश करती है। इसे सिर्फ एक घटना मान लेना भी गलत होगा क्योंकि थप्पड़ मारना  किसी का भी शौक नहीं होता। यह सच है कि लोकतंत्र में अपना विरोध दर्ज कराने के लिए लोकतांत्रिक तरीकों का इस्तेमाल करना चाहिए लेकिन धरना, प्रदर्शन  और जुलुस  के बिरोध में  लोकतांत्रिक तरीकों पर पुलिसिया जुल्म भी तो इन्हीं नेताओं की शह पर होता है  फिर अव्यवस्थाओं के भंवर में फँसा आम आदमी क्या करे? गौरतलब है कि राहुल गाँधी को काले  झंडे  दिखा रहे युवकों को मारने -पिटने में मंत्री भी शामिल थे। फिर उन युवकों से हम संयम की उम्मीद क्यों करते हैं?

इन सबके बीच विचारणीय यह भी है कि राजनीति पर जब तक स्वार्थनीति हावी रहेगा ऐसी घटनाएँ रोकी नहीं जा सकती। इसलिए निजी  हित को छोड़कर नेताओं को जनहित की तरफ भी घ्यान देना चाहिए। 

फ्रांस की 1756 की क्रांति का इतिहास साक्षी है, जो कि कोई सुनियोजित न होकर जनता के आक्रोश का परिणाम थी ! जब जनता किंग लुईस के शासन में महंगाई और भ्रष्टाचार से परेशान होकर  सड़कों   पर उतरी और तो पूरे राजघराने को ही मौत के घाट उतारते हुए अपने साथियों को ब्रस्सील जेल को तोड़कर बाहर निकाल कर क्रांति की शुरुआत  हुई थी ! परिणामतः वहां लोकतंत्र के साथ - साथ तीन नए शब्द Liberty , Equality , Fraternity अस्तित्व में आये ! वास्तव में उस समय राजघराने का जनता की तकलीफों से कोई सरोकार नहीं था ! इसका अंदाजा हम उस समय की महारानी मेरिया एंटोनियो के उस वक्तव्य से लगा सकते हैं जिसमें  भुखमरी और महंगाई से बेहाल जनता से कहा था कि ‘अगर ब्रेड नहीं मिल रही तो केक क्यों नहीं खाते !’

ऐसी ही एक और क्रांति सोवियत संघ में भी हुई थी ! जिसका परिणाम वहां की जारशाही का अंत के रूप में हुआ था ! कारण लगभग वहां भी वही थे जो कि फ़्रांस में थे जैसे खाने-पीने की वस्तुओं का आकाल , भ्रष्टाचार में डूबी सत्ता और सत्ता के द्वारा जनता के अधिकारों का दमन ! सोवियत संघ में लोकतंत्र तो नहीं आया परन्तु वहां कम्युनिस्टों की सरकार बनीं !

कहने में अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिये कि जब अर्थव्यवस्था ध्वस्त होने के कगार पर हो, मंहगाई के साथ - साथ बेरोजगारी दिन - प्रतिदिन बढ़ रही हो, और सरकार अपनी नीतियों से जनता की आवाज को दबाने कोशिश कर रही हो तो जनता    सड़का पर उतरकर अपना आक्रोश प्रकट करने लग जाती है। और यदि समय रहते हालात को न संभाला गया तो यही जनता भयंकर रूप लेकर  सत्ताधारियों ने से पीछे भी नहीं हटती जिसका गवाह इतिहास के साथ -साथ अभी हाल ही में हुए कुछ देशों के घटनाचक्र है ! एक तरफ कभी अमेरिका और ब्रिटेन के लोग आर्थिक मंदी और बेरोजगारी के चलते प्रदर्शन करते है तो वही दूसरी तरपफ मिस्र की जनता सड़कों पर है, जिसके चलते मिस्र आज भी सुलग रहा है !

भारत में आंकड़ो की बजीगीरी सरकार चाहे जितनी कर ले पर वास्तविकता इससे कही परे है ! बाजार में रुपये की कीमत लगातार गिर रही है । गौरतलब है कि रुपये की कीमत गिरने का मतलब विदेशी भुगतान का बढ़ जाना है अर्थात पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतें और बढ़ेगी ही जिससे कि अन्य वस्तुओ की कीमतों में भी इजाफा होगा ! महंगाई को सरकार पता नहीं क्यों आम आदमी की समस्या नहीं मानना चाहती ?

जनता का यह आक्रोश कोई विकराल रूप ले ले उससे पहले सरकार को आत्मचिंतन कर इस सुरसा रूपी महंगाई की बीमारी से जनता को निजात दिलाना ही होगा, क्योंकि एक बार राम मनोहर लोहिया जी ने भी कहा था कि जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं किया करती है।

कहने की जरुरत नहीं पड़ती कि किसी भी समस्या के लिए जब भी संघर्ष होता है तो एक अजीब तरह की उसमे गर्मी होती है, जो केवल हरविंदर जैसे युवकों में नहीं, सबको महसूस होती है। और उस संघर्ष का कारवां अपने आप भी बन जाता है।

हरविंदर ने जरूर अपने लिए ही थप्पड़ मारा होगा। कुछ नाम हो, आम  आदमी उसे जाने और उसे समाज में कुछ स्थान मिले। यही भूख उसे इस काम के लिए प्रेरित कर सकती है।

कहना चाहूंगा कि थप्पड़ राजनीति   से मुद्दे का हल नहीं है। अब क्या शरद पवार महंगाई को रोक लेगे? ये सवाल अब भी अनुत्तरित है। भला शरद पवार जैसे कद्दावर नेता पर भी कोई प्रभाव यह थप्पड़ छोड़ पायेगा कहना भी मुश्किल है।

संभवतः मशहूर शायर राहत की इन पंक्तियों की याद आती है,

अगर खिलाफ हैं कोई, तो होने दो,

जान थोड़ी है,

ये सब धुआं है

कोई आसमान थोड़ी है।

लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में,

यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है।

अर्थात् महंगाई के लिए महज केंद्र सरकार तो जिम्मेदार नहीं है, इसलिए अब यदि विपरीत प्रभाव होगा भी तो सरकार में शामिल दलों और अन्य राज्य सरकारों को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। अंततः सरकार करे भी तो क्या क्योंकि मामला अब अंतरराष्ट्रीय कीमतों से जुड़ गया है।




राजेश मिश्र



तीसृतिसरी

रविवार, 28 अगस्त 2011



नजरिया / राजेश मिश्र

कौन है भ्रष्टाचारी और कहां है भ्रष्टाचार ?

यह सवाल आज भी ज्वलंत है कि  अन्ना हजारे के द्वारा उठाए  गये  जन आन्दोलन से क्या भ्रष्टाचार का नामोनिशान मिट जयेगा? क्या इस बिल के पास हो जाने से भ्रष्टाचार जड़ से  साफ़ हो जाएगी ?  यदि हम भ्रस्टाचार कि बात करें तो सवाल उठता लाज़िनी है कि आखिर यह भ्रष्टाचार है क्या ? 
राम लीला  मैदान के मंच पर भ्रस्टाचार के  इस आन्दोलन में डाक्टर से लेकर इंजिनियर तक और वकील से लेकर पत्रकार  और पढ़े लिखे बेरोजगार नवयुवकों के प्रतिशोध को  केवल ऐसा लगता था कि जैसे केवल सरकार ही भ्रष्ट है और बाकी सारे ईमानदार है।    

यदि थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो साफ़ दिखेगा- ,

दिखेगा कि  रिटेल मेडिकल स्टोर वाले बिना फार्मासिस्ट  के दवा बेच रहे हैं / कि, किराना स्टोर वाले नकली व मिलावटी सामान बेच रहे हैं / कि दूध  से निर्मित खाद्य पदार्थ बेचने वाले मिलावटं कर रहे है / कि प्राईवेट डाक्टर जनता को लूट रहे हैं  /   कि वकील अपने मुवक्किल को चूस रहा है / कि धर्म  की आड़ में रंग बिरंगे कपड़े पहनकर बाबा लोग अपना व्यवसाय चला   रहे हैं / कि प्राईवेट क्षेत्रों    में तकनीकी शिक्षा बेचने वाले छात्रों को धेखा दे रहे हैं /  कि पेट्रोल बेचने वाले  पम्प मालिक डीजल पेट्रोल में मिलावट कर रहा है।
ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो अब भी अनुत्तरित है। अब देखना यह है कि लोकपाल के बाद हम इन भ्रष्टाचार आचरणों से कैसे निपटेगें?

हम आप  से   पूछना चाहते  हैं  कि   क्या   केवल  सफेद कपड़े पहनने से या हाथ में झंडा उठा लेने से, या धरना प्रदर्शन करने से भ्रष्टाचार के लीकेज़ को रोका जा सकता है ?  

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

कॉमन वेल्थ के बहाने एक बेहूदा चितंन

राजेश मिश्र

बचपन से सुनने को मिला है कि दिल्ली सात बार उजड़ी और बसी है।‘कॉमन  वेल्थ गेम’ में तो अब इसका नम्बर आठवां है। फिर भी कुछ बात है कि दिल्ली वालों की हस्ती मिटती नहीं- हसरतें बची रहती है। राष्ट्रªकवि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में कहें तो ‘वैभव की दिवानी दिल्ली, कृड्ढक मेघ की रानी दिल्ली, कदाचार ,अपमान ,व्यंग्य की चुभती हुई कहानी दिल्ली और दो दिनों के डिस्कों डांस में नाची हुई नादान दिल्ली’ पर जितना कुछ कहा जाये, कम है।

इस ‘कम’ के कमसीनी को अब एक बार फिर से संवारा जा रहा है और इसे पूरे जतन के साथ संवारने में जुटी हैं दिल्ली की मुख्यमंत्री   महोदया माननीय शीला जी दीक्षित । ‘दिल्ली मेरी जान, दिल्ली मेरी शान’ पर थिरकने वाली मुख्यमंत्री साहिबा की आखों को यदि आप भी गौर से देखेंगे तो आप को भी पूरा काॅमन गेम दिख जायेगा। ये गेम ही तो है अपनी दिल्ली पर नाज़ होने का पर मैं दिल्ली की आन, बान, और शान के बारे में कुछ अलग तरीके से सोच रहा हूं। सोच रहा हूं कि क्या ये वही दिल्ली है जिसे कभी पांडवों का इंद्रप्रस्थ कहा जाता था? जिसे आर्य पुत्रों ने बसाया और मुगलों ने रंगीनियां दी थी?फिर अंग्रजों ने शानों- शौकत दी, और आखिरी में हमने इसे लोकतंत्र का अमली जामा पहनाकर अपने अधिकार में ले लिया ?
अधिकार में ले लिया तभी तो दिल्ली भारत का दिल बन गया। या यूं कहा जाये कि दिल्ली भारत बन गई या भारत दिल्ली। बात एक है।

कहने की जरूरत नहीं कि दिल्ली न जाने कितने ही राजाओं बादशाहों के उत्थान -पतन की गवाह है। इसी दिल्ली ने कितने ही सन्तों फकिरों की वाणी अपने कानों से सुनी है और न जाने कितने ही सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक आंदोलन कर सूत्रपात इसी दिल्ली से हुआ है। इसी दिल्ली ने अनेक लेखकों, कवियों, साहित्यकारों को न केवल जन्म दिया बल्कि अपनी गोद में पाला भी है और पोसा भी है । मेरे द्वारा लिखे गये शब्द पालना और पोसना थोडा गंभीरता से लीजियेगा।

पूरे एक हजार वड्र्ढ तक मुसलमान यहां सत्ता में रहे। सबने अपने- अपने तरीके से इसी दिल्ली को अपनाया सजाया और संवारा और उजाड़ा भी। यहां तक कि अंग्रेज भी दिल्ली को दिल दे बैठे। इसी दिल्ली में जहां खुशियों के नगाड़े बजे वहीं असहाय लोगों की जित्कार भी गूंजी। ये वही शहर है जहां जश्न भी हुआ और खून की नदियां भी बही।

इसलिये तो कहता हूं कि दिल्ली देखने की भी चीज है और दिखाने की भी। कहता हूं कि -

३दिल्ली देखी दिल वाले देखे,

गोरे देखे, काले देखे,

बैंड बजाने वाले देखे।

जी हां अब आगे-आगे देखिये होता है क्या?

असल में होना न होना तो लोकतंत्र के उस खंबे पर टिका हुआ है जहां हुक्मरान रहते हैं। वे चाहे तो इस लोकतंत्र में कुछ भी कर सकते हैं- करा सकते हें। चाहे तो दिल्ली तोड- फोड़ कर बसा सकते हैं। चाहे तो बाबरी गिरा सकते हैं, मंदिर बना सकते हैं, फिर- फिर से दंगे करा सकते हैं शराब पिला सकते हैं, धूम मचा सकते हैं, मंहगाई बढ़ा सकते हैं, मंहगे खेल का नाम ‘काॅमन गेम’ रखकर आम आदमी को दिल्ली का झूठा सपना दिखा सकते हैं।

जी हां, झूठे का बोल-बाला ही तो है प्रगतिशीलता। फिर बात वहीं आ कर टिक जाती है कि प्रगतिशीलता का रौब झाड़ने वाली मैट्रो वाली इस दिल्ली में आखिर कहां ढूंढ़ा जाये उस दिल्ली को, जो कभी औरंगजेब के संगीत प्रेम और उसकी विरक्ति का गवाह था?

कहां ढूंढे़ उस दिल्ली को, जहां की खसूसियत थी कि नये से नया आदमी भी चांदनी चैक और कानौत  प्लेस में रम जाने के बाद दिल्लीवाला बन जाता था? कहां गया वह दिल्ली का घंटाघर, जहां रात की चाय दिलक्य हुआ करती थी और कनॅाट प्लेस के काॅफी हाउस में पत्रकार पैदा होते थे। अब ये सब कुछ दिल्ली से गायब है।

गायब है, बहादुर्याह की यादें ,गालिब की गजलें, बाद्याहों, राजाओं और राजनेताओं की परवान चढ़ती व्यान  । इसलिये अब दिल्ली दिल वालों की नहीं रहकर धन वालों की हो गई है। अब चांदनी चैक यानी पुरानी दिल्ली भी नई दिल्ली बन गई है। अब यहां झुके हुये लोग नहीं हैं, संघर्घो  की कहानी नहीं है। थोड़ा गौर कीजिये तो समझ में आ जायेगा कि अब गांव कस्बे में वो नारे नहीं है जिसमे  कभी लिखा होता था ‘चलो दिल्ली’।

अब गांव खुद चल कर दिल्ली आ गया है। झुग्गियों में एक अलग तरह की अमीरी पल रही है। सेल फोन है, कलर टीवी है , मारुति वैन है । सब आधुनिक दिल्ली का ही तो कमाल है भाई। सड़क से रिक््या गायब है, है तो खाली नहीं हैं । घर से निकलो तो मैट्रो है। मैट्रो से उतरते ही ‘फीडर’ है ।

दिल्ली में मंहगी शराब  का अच्छा खासा बाजार है, सेक्स का खूबसूरत धंधा है, इच्छाधारी बाबा हैं, उनकी बीन पर थिरकती खूबसूरत नागिनों की टोली है। इसलिये तो दिल्ली में अब मजबूरी नहीं मौज है। झूमिये- नाचिये मौज मनाइये।

अब यहां संस्कृतिकरण भी ‘मोर्डेन ’ हो चुकी है। हां कुछ नई सभ्यताओं का विकास जरुर हुआ है। ये सभ्यताएं फलती फुलती हैं गन्दे नालों के आस पास। जहां झुग्गी बस्तियों का विकास नये बोट बैंक की बाट जोहता है।

मगर फिर भी दिल्ली इस मुल्क की धड़कन है और बनी रहेगी। ऐसी धड़कन, जहां हर रोज एक नये ्यहर पलते रहेंगे। और हम सिर्फ और सिर्फ सुंदर इमारतों के डरावने सपनों में जी रहें हैं , जीते रहेंगे।

बाबजूद इसके दिल्ली एक जवां शहर   है, क्योंकि दिल्ली को बुढ़ापा पसंद नहीं है। क्या आप नहीं मानते कि भीष्म की तरह जीने को अभिशप्त है यह शहर ?

इसलिये मैं कहता हूं कि दिल्ली किसी से दिल नहीं लगाती। और जिससे लगाती है तो बस लगा ही लेती है।

लेकिन मेरी दिल्ली हो या आपकी, आज भी है दिलवालों की। यदि आपने दिल्ली से दिल लगा लिया तो सताएगी भी और प्यार भी करेगी।

दिल्ली से भागिये तो मोहपा्य में ऐसा जकडे़गी कि आप निकल न पायेंगे। यमुना के रंग का पानी काला है और दिल्ली आना हो तो काला पानी ही समझिये। आजीवन कारावास!

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

पिपली लाइव

पिपली लाइव

एक प्रभावहीन तमाषा का बाजारीकरण
राजेष मिश्र
फिल्म-’पीपली लाइव’।


निर्देशिका- अनुषा रिज्वी
प्रोड्यूसर- आमिर खान




किसानों की आत्महत्या पर आधारित है आमिर खान के इस फिल्म में आपने पिपली की तस्वीर तो देखी ही होगी। नहीं देखा है तो जरूर देखिये, ये मेरी गुजारिष है आपसे। फिर खुद से पूछियेगा कि इस फिल्म में आपको भारत की आखिर कौन सी तस्वीर दिखाई देती है ?


भारत में गरीबी की तस्वीर, भूख से मरते हुये किसानों की तस्वीर, भ्रड्ढट नेताओं की तस्वीर, चिरकुट टीवी चैनलों की तस्वीर, या फिर विवषता से उपजे बाजारबाद की वो तस्वीर, जहां हर चीज की कीमत होती है, इस बाजार में अस्मत् और किस्मत के बिकने की कहानी अब पुरानी हो गई, अब तो इस बाजार में मौत के खरीददार भी हैं और मौत बेचने वालों की लाचारी भी हैं।


जी हां, इस फिल्म में आमिर भाई ने षायद कहीं न कहीं परोक्ष रूप से सठिया रही स्वतंत्रता दिवस पर करारा प्रहार किया है। 15 अगस्त के दिन फिल्म का रीलिज होना,और राड्ढटृीय अवकाष के दिन लक्कख्ुआ के मौत के मंजर के तमाषा को देखने ताबरतोड टिकट का बिकना यह साबित करने के लिये काफी है कि हम कैसे भारत में रह रहे हैं. वो भारत जो न तो हमारे टीवी चैनलों पर दिखता है और न ही हमारे नेताओं की योजनाओं में.


यदि कम षब्दों में कहा जाये तो हम ही नहीं, आमिर भाई भी,नेता और ब्यूरोक्रेट्स भी, यहां तक की तथाकथित पत्रकार भाई भी,अ ब भारतवासी नहीं रहे बल्कि उस ‘इंडिया’ के हिस्सा हो गये हैं जो चमक रहा है। जी हां यह ‘साइनिंग इंडिया है।’ तो क्या हम ये मान लें कि पिपली के साइनिग तस्वीर को परत- दर- परत उघाड कर कामन बेल्थ गेम में आये मेजवानों को हम ठूस - ठूस कर बता दें कि ‘हम उस देष के बासी हैं, जहां दर्द का दरिया बहता है और जब पेट की भूख रोटी मांगती है तो उसकी कीमत चुकाई जाती है, आत्महत्या के बाद मिलने वाले मुआवजे से’।


जी हाँ  ये सब होता है सिर्फ ‘भारत’में, इंडियां में नहीं। क्योंकि भारतीय लोकतंत्र  में व्यक्ति को वस्तु बनाने वालें लोंगों ने देष को दो भागों में विभक्त कर दिया है। इंडिया और भारत। इंडिया में यात्रा करने के लिये लेटेस्ट वाहन हैं। सैंट्रो है, मैट्रो है। वहीं भारत में पिपली जैसा गांव भी है जहां रस्सी खींच, तीन चक्कों वाली फटफटिया है। इंडियां में मिट्टी उठाने और खाई खोदने की बडी बडी मषीने काम करती है। इंडिया में मजदूरी और मजदूरों का भी रूतबा है। पर भारत में भूखे पेट जमीन खोदते -खोदते जमीन में ही दो-जख हो जाते हैं यहां के मजदूर। इंडिया में प्यास बुझाने के लिये पेप्सी है, बीयर है तो भारत में पानी के लिये आज भी मीलों चलना पडता है। इंडिया के तकरीबन हर घर में ‘इ-मेल’ है, मोबाइल फोन है पर भारत में आज भी साधारण डाक समय पर नहीं मिलती। इंडिया में रे- बैन के एक चष्में पर हजारों रूपये खर्च कर दिये जाते हैं पर भारत में आज भी आबादी का एक बडा तबका दो जून की रोटी के लिये कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। क्या- क्या कहा जाये आमीर भाई!


कुल मिला कर बस यही समझिये कि इंडिया में अय्यासी है तो भारत में संघड्र्ढ। सच तो यह है कि इंडिया को जन्म दिया है उस अकूत दौलत ने जो बिना किसी विषेड्ढ प्रयास के मिल जाती है। ये दौलत रिष्वत की भी हो सकती है और घपले- घोटाले की भी। आदमी से आदमी के उस फासले की भी जो आदमी को ही बेच रहा है। आमीर जी इस दोड्ढ में गुनहगार कहीं न कहीं आप भी हैं। मैंने आपकी फिल्म डाउनलोड कर के देखी। बहुत अच्छा सब्जेक्ट है, परंतु सब्जेक्ट के साथ आब्जेक्ट पूरी स्टोरी से गायब है। इसे हम क्या मानें टी आर पी का खेल या कलात्मक चित्रों का बाजारीकरण?


बवजूद इसके फिल्म पूरी व्यवस्था के मुंह पर तमाचा तो है ही. ऐसा तमाचा जिसके पास मरे हुए किसान के लिए तो योजना है लेकिन उसके लिए नहीं जो जीना चाहता है. ये उन पत्रकारों पर भी तमाचा है जो लाइव आत्महत्या में रुचि रखते हैं पर तिल-तिल कर हर रोज मरने वाले में नहीं।


फिल्म न तो नत्था किसान के बारे में है और न ही किसानों की आत्महत्या के बारे में बल्कि उन किसानों को भी फोकस करती है जो पहले खेतों में हल जोतकर भारत को सोने की चिडिया बनाता था और अब शहरों में कुदाल चलाकर उसी इंडिया के लिए आलीशान बिल्डिंग  बना रहा है।


सच तो मानना ही पडेगा कि आज मुद्दा गरीबी का नहीं बल्कि मुद्दा जीने का है.. चाहे वो मिट्टी खोदकर जीये या मर कर. क्या फर्क पड़ता है गांव की मिट्टी खोद कर मरें या कामनवेल्थ गेम्स के लिए मिट्टी खोदते हुए।


ऐसे समय में फिल्म को अंतरराष्ट्रीय स्तर सराहा जा रहा है कि कामनबेल्थ में आने वाले मेहमान कह सके कि 2010 का यह अंतराड्ढट्रीय खेल उस देष मे हुआ था जहां पिपली जैसा गांव है, लक्खा जैसा किसान है, भूख है। पर इस सब के बाद बाजारबाद का एक ऐसा चेहरा भी है जहां कुछ भी बेचा और खरीदा जा सकता है।


....पर आप ऐसा नहीं कहेंगे क्योंकि आपने तो इंडिया को छूआ तक नहीं है। आपकी फिल्म भारत की दिषा और दषा को जो ले कर चलती है न ? क्या मानते  हैं आप?