मुद्दा क़ानूनी बदलाव के सकारात्मक संकेत
देश में खाद्दान की कमी हो गई है अब यह कोई खास समाचार नहीं रहा.बल्कि इन दिनों क़ानूनी बदलाव पर जो बहस हो रही है वह खास समाचार है. राजेश मिश्र बता रहे है कि अपाहिज विकास की शर्मनाक सच्चायों पर नकेल कसने की जरुरत आ गई है.
अब न्यायालय यह स्पष्ट रूप से कह दिया है कि आम लोगोको वश्वीकरण और उदारीकरण के आकर्षक नारों में नहीं उलझना चाहिए. यह बात सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीश, जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति एके गांगुली ने एक साथ कही है साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि अदालतों के भीतर मिले कुछ संकेतों से लगता है कि उनका नज़रिया एक बार फिर बदल रहा है.
सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों, न्यायमूर्ति जीएस सिंघवी और न्यायमूर्ति एके गांगुली ने कहा है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की आख़िरी अदालत, यानी सुप्रीम कोर्ट के बारे में कहा कि किसी आपराधिक मामले पर सज़ा का फ़ैसला करते हुए यह ध्यान में रखने कि ज़रूरत है कि वह अपराध ग़रीबी के दबाव में तो नहीं किया गया है. अदालत ने कहा है कि किसी ग़रीब अपराधी में सुधार की संभावना को भी ध्यान में रखना चाहिए.
पिछले हफ़्ते ही दिल्ली हाईकोर्ट से सेवानिवृत्त हुए मुख्य न्यायाधीश एपी शाह ने सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदर्शिता की ज़रुरत पर बल दिया है.
गौरतलब है कि इससे पहले ही सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक कर दिया है. कानूनविदों ने यह भी मान लिया है कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय में सूचना के अधिकार के तहत आना चाहिए. जाहिर है इस सकारात्मक बदलाव से भारत के संविधान में पारदर्शिता आएगी . सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश आरसी लाहोटी, ने तो बहुत पहले ही कह दिया है कि आने वाले दिन एलपीजी के हैं. एलपीजी मतलब लिब्रलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन. यानी उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण. वर्तमान मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन भी उस समय एलपीजी के इस सिद्धांत से है. भोपाल में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीशों के सम्मेलन में यह बात उठी कि उदारीकरण, नई अर्थव्यवस्था और नई तकनीकें कैसी हैं. अदालतों का रुख़ ऐसा हो चला है मानों वे सरकार की नीतियों के अनुरुप अपने आपको बदल लेना चाहती हैं.
जिस वैश्वीकरण और उदारीकरण को लेकर समाज में आम सहमति नहीं बन सकी थी उससे अदालतें मानों सहमत हुए जा रही थीं.
बताने कि जरुरत नहीं कि .कथित मीडिया ट्रायल के बाद ही सही प्रियदर्शिनी मटूट, जेसिका लाल, शिवानी भटनागर और नितीश कटारा की हत्या जैसे मामलों के अभियुक्त प्रभावशाली होने के बावजूद सलाखों के पीछे तो हैं. अदालत से बाहर आते समय चाहे एसपीएस राठौर की चुटकिली मुस्कुराहट क्यों न हो अब उन्हें भारी तो पड़ ही रही है.हालांकि अभी बहुत कुछ होना बचा हुआ है.
अब समय आ गया है कि देश भ्रष्टाचार के मामलों में पकड़े गए अधिकारियों और राजनेताओं को सीखचों के पीछे ज़िंदगी गुज़ारते देखना चाहता है. हत्या, लूट और बलात्कार के मामलों के अभियुक्तों को विधानसभाओं और संसद में प्रवेश करने से वंचित होता देखना चाहता है. देश चाहता है कि जब बरसों बरस से लाखों मामले अदालत में लंबित हों तो अदालतें उसे चिंता के साथ देखें.
जब हज़ारों लोग विचाराधीन क़ैदियों की श्रेणी में हों तो अदालतों को विचार करना चाहिए कि गर्मियों की और शीतकाल की लंबी छुट्टियाँ अदालतों के लिए कितनी ज़रुरी हैं.
इंतज़ार उस दिन का भी है जिस दिन माननीय न्यायाधीश बेझिझक कह सकें कि न्याय के मंदिर भ्रष्टाचार और पूर्वाग्रहों से मुक्त हैं.
शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010
शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2009
ओलंपिक इस खेल के बाजारीकरण का सच
हिटलर पहला व्यक्ति था, जिसने ओलंपिक खेलों का सीधे-सीधे राजनीतिक इस्तेमाल किया और तब एक अश्वेत धावक जेस्सी ओवंस ने नाजी गुरूर को तोड़ फासिस्ट विचारधारा की कलई ही खोल दी थी। लेकिन इसके बाद से ओलंपिक क्रमश: विभिन्न देशों की राजनीति का हिस्सा बनते चले गए। अब खेलों के बाजारीकरण का दूसरा दौर प्रारंभ हो चुका है। राजनीति और बाजार के गठबंधन ने खेलों को अपने हित साधने का एक औजार मात्र बनाकर रख दिया है।
बहररहाल, १८९६ में ऐथेंस में हुए खेलों से आधुनिक ओलंपिक की शुरूआत मानी जाती है। इस पूरे आयोजन के पीछे फ्रांस के कुलिन पियरे द कुबर्ती की विलक्षंण प्रतिभा थी। यह वह समय था जब युरोप गहरी उथल-पुथल से गुजर रहा था। राजनीतिक शक्ति का केंद्र तेजी से ब्रिटेन बनता चला जा रहा था। मलिका विक्टोरिया का कभी न डूबने वाला सूरज धीरे-धीरे तपने लगा था। नेपोलियन के पतन के बाद फ्रांस राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभुत्व के लिए छटपटा रहा था। ऐसे में ओलंपिक एक ऐसा सांस्कृतिक आयोजन बना जिसके राजनीतिक प्रभाव दूरगामी सिद्ध हुए। नए नायकों के अभाव में पुराने नायकत्व की स्थापना की गई। यह वास्तविकता के ऊपर मिथक की जीत थी।
इधर इन खेलों पर राजनीति से एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है। पिछले दो-तीन दशकों में हैरतअंगेज ढंग से खलों का व्यावसायीकरण हुआ है। खिलाड़ियों को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने का प्रयास गलत नहीं कहा जा सकता। लेकिन वास्तविकता इतनी एकांगी नहीं है। बाजीरीकरण ने खेलों को बिकाऊ माल और मुनाफाखोरी का उपक्रम बनाकर रख दिया है। इसमें बाजी वही देश ले जाते हैं जो आर्थिक रूप से शक्तिशाली हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां विश्व बाजार की ताकत के रूप में खेलों पर अपना प्रभाव ही नहीं डालती बल्कि उन्हें अपनी जरूरत के हिसाब से चलाती भी हैं।
खेलों के बाजारीकरण में एक नया मालबेचू किस्म का नायक उभरता है और पुराने का नामो-निशान नहीं रहता। बीजिंग ओलंपिक का नायक फ्लेप्स है। अगले ओलंपिक में उसकी तेजी, गति, आक्रामकता को याद भी रखेगा मुझे इसमें शक है। क्या अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताएं खेलों के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति भर हैं या ये ऐसे स्थल हैं जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियां मोटे मुनाफे की फसल काटती हैं।
बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के लिए स्टार खिलाड़ियों, कलाकारों पर पैसा लगाना पसंद करती हैं। उदहारण के लिए हमारे यहां हाकी के बजाय अनधिकृत रूप से क्रिकेट दर्जा लिए हुए है। सो क्रिकेट का स्वरूप बदला गया है। सफेद पोशाकें रंगीन हो चुकी हैं। कंपनियों के लोगो और बिल्ले खिलाड़ियों के कपड़ों, टोपियों से लेकर जूतों तक में चमकते रहते हैं।
पेप्सी और कोका कोला (इनके देश में क्रिकेट नही खेला जाता) ने इन सफल खिलाड़ियों को अनाप-शनाप पैसा और नायकत्व प्रदान किया है। क्यों? जाहिर है इससे उन्हें अपने उत्पादों के दूर-दूर तक प्रचार और बिक्री में आसानी होती है। कुल मिलाकर कहा जाए तो इनका पूरा विज्ञापन तत्व करोड़ों दर्शकों की मानसिकता को एक खास सांचे में ढालकर अपने उत्पादों की बिक्री में इजाफा करना है।
मोटा मुनाफा कमाने के लिए क्या-क्या छल-छद्म अपनाए जाते हैं, यह इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा। १९८७ में अपनी मृत्यु तक खेल का समान बनाने वाली प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनी एडिडास के प्रमुख हार्स्ट डैसलर इंटरनैशल स्पोर्ट्स एंड लैजर के भी मालिक थे। इस छोटी कंपनी का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं था। यह कंपनी बड़े-बड़े आयोजन करने वाले संगठनों से बढ़िया संबंध बनाने का माध्यम थी, जो एडिडास के लिए महत्वपूर्ण संपर्कसूत्र थे। यानी खेलों के आयोजनों को अपने पक्ष में करने के लिए इस सेंधमार कंपनी की स्थापना की गई थी। इसी तरह १९८० के मास्को ओलंपिक के अमेरिकी बहिष्कार के पीछे राजनीतिक कारणों के अलावा यह विचार भी था कि इससे पश्चिमी मीडिया की रूची कम होने से सोवियत संघ को स्पष्टत: आर्थिक हानि होगी। लेकिन इसके बावजूद मास्को खेलों के प्रसारण अधिकार करीब ८.७ करोड़ डालर में बिके और विज्ञापनों से होने वाली आय १५ करोड़ डालर आंकी गई। जाहिर है राजनीति बाजार पर हावी नहीं हो सकी।
लेकिन खेलों के बाजारीकरण का उत्कर्ष १९९२ में चोटी पर पहुंचा, जब अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी ने ५० करोड़ डालर के प्रसारण अधिकार की पेशकश को ठुकरा दिया। ये ओलंपिक खेलों की हैसियत और अधिक लाभ कमाने की गुंजाइश को दर्शाता था। ५० करोड़ डालर की पेशकश आखिर कितने व्यापारिक संगठनों को नसीब हो पाती है। मगर ये मौका मिला ओलंपिक कमेटी को, जो कहने को तो खेलों में व्यवसायिकता के खिलाफ है और ओलंपिक के दरवाजे गैरपेशेवर खिलाड़ियों के लिए ही खोलती है, पर स्वयं आकंठ बाजारीकरण में डूब चुकी है।
खेलों के अत्यधिक व्यवसायीकरण ने खिलाड़ियो को अनुचित शोहरत पाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को मजबूर कर दिया है। हानिकारक उत्तेजक दवा स्टोरायड्स का सेवन यूं ही नहीं किया जाता। जैसे विश्वसुंदरियों का निर्माण एक भूमंडलीय उद्योग बन चुका है, वैसे ही खिलाड़ियों का उत्पादन इस उद्योग का पुरुष संस्करण है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों को महिला खेलों में कोई दिलचस्पी नहीं है। कुछ साल पहले अंग्रेजी पाक्षिक पत्रिका फ्रंटलाइन के मुताबिक खेलों की ८२ फीसदी प्रायोजक कंपनियां महिला खिलाड़ियों मे कोई दिलचस्पी नहीं रखती (जब तक की वो सानिया मिर्जा की तरह आकर्षक यानी सेक्सी न हो, उसका खेल गया भाड़ में)। खेलों की इस राजनीति और बाजारीकरण ने खिलाड़ियों की मानसिकता को भी बदल डाला है। वो एक ऐसे व्याहमोह में पड़ गए हैं जिसे किसी भी हाल में स्वस्थ मानसिकता की निशानी नहीं कहा जा सकता। एक स्तर पर इसे अपराधी मानसिकता कह सकते हैं। इस व्याहमोह की झलक आप पूर्व ब्रिटिश बाडी बिल्डिंग चैंपियन जो वारीक्क में देख सकते हैं। वो लंबे समय से गुर्दे औऱ यकृत के विकारों से पीड़ित है। उसका कहना है कि गौरव के उस क्षण के लिए वो अब भी स्टीरायड्स का सेवन करने से नहीं चुकेंगी। जाहिर है खिलाड़ियों की एक ऐसी जमात पैदा हो रही है जो "बाकायदा बीमार" अमेरिकी धावक फ्लों जिन्होंने सौ मीटर दौड़ में विश्व रिकार्ड कायम किया, मात्र पैंतीस वर्ष में चल बसी। सारी दुनिया जानती है कि उनकी असामयिक मौत का कारण मादक दवाओं के उपयोग से जुड़ा है।
अंत में ट्रैक एंड फील्ड प्रतियोगिताओं से जुड़े एक मिथक की बात कर लेते हैं। अश्वेत खिलाड़ियों के दबदबे को सारी दुनिया चकित होकर देखती है। ऐसे विकसित राष्ट्र भी अश्वेत खिलाड़ियों को उतारते हैं, जहां उनकी संख्या न के बराबर है। इसलिए इन खिलाड़ियों को तुरत-फुरत नागरिकताएं दी जाती है्ं। लेकिन इतने सारे अफ्रीकी देश हैं, वो ओलंपिक पदक तालिका से गायब क्यों रहते हैं। जाहिर है कुपोषण, बीमारी और भुखमरी जैसी समस्याओ से त्रस्त देश अनाप-शनाप पैसा किसी खिलाड़ी पर कैसे खर्च कर सकते हैं?
कुल मिलाकर हम बाजार के युग में जी रहे हैं। कार्पोरेट प्रायजकों, विज्ञापन और मार्केटिंग एजेंसियां और मीडिया जिनका भी पैसा इस खेल में लगा है, वे हर हाल में एक कृत्रिम लेकिन सहज दिखती अनिश्चितता का माहौल पैदा करते हैं। खेल को अधिक उत्तेजक और आक्रामक बनाने के लिए उसके नियमों में बदलाव किए जाते हैं।पर खेल के बाज़ार में जो कुछ भी होता है या हो रहा है वोह सिर्फ़ एक बाजार है। माल धरल्ले से बिक रहे है ,पैसा आप का निकल रहा है । शायेद यही आपकी जरूरत है|
बहररहाल, १८९६ में ऐथेंस में हुए खेलों से आधुनिक ओलंपिक की शुरूआत मानी जाती है। इस पूरे आयोजन के पीछे फ्रांस के कुलिन पियरे द कुबर्ती की विलक्षंण प्रतिभा थी। यह वह समय था जब युरोप गहरी उथल-पुथल से गुजर रहा था। राजनीतिक शक्ति का केंद्र तेजी से ब्रिटेन बनता चला जा रहा था। मलिका विक्टोरिया का कभी न डूबने वाला सूरज धीरे-धीरे तपने लगा था। नेपोलियन के पतन के बाद फ्रांस राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रभुत्व के लिए छटपटा रहा था। ऐसे में ओलंपिक एक ऐसा सांस्कृतिक आयोजन बना जिसके राजनीतिक प्रभाव दूरगामी सिद्ध हुए। नए नायकों के अभाव में पुराने नायकत्व की स्थापना की गई। यह वास्तविकता के ऊपर मिथक की जीत थी।
इधर इन खेलों पर राजनीति से एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है। पिछले दो-तीन दशकों में हैरतअंगेज ढंग से खलों का व्यावसायीकरण हुआ है। खिलाड़ियों को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने का प्रयास गलत नहीं कहा जा सकता। लेकिन वास्तविकता इतनी एकांगी नहीं है। बाजीरीकरण ने खेलों को बिकाऊ माल और मुनाफाखोरी का उपक्रम बनाकर रख दिया है। इसमें बाजी वही देश ले जाते हैं जो आर्थिक रूप से शक्तिशाली हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां विश्व बाजार की ताकत के रूप में खेलों पर अपना प्रभाव ही नहीं डालती बल्कि उन्हें अपनी जरूरत के हिसाब से चलाती भी हैं।
खेलों के बाजारीकरण में एक नया मालबेचू किस्म का नायक उभरता है और पुराने का नामो-निशान नहीं रहता। बीजिंग ओलंपिक का नायक फ्लेप्स है। अगले ओलंपिक में उसकी तेजी, गति, आक्रामकता को याद भी रखेगा मुझे इसमें शक है। क्या अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताएं खेलों के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति भर हैं या ये ऐसे स्थल हैं जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियां मोटे मुनाफे की फसल काटती हैं।
बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के लिए स्टार खिलाड़ियों, कलाकारों पर पैसा लगाना पसंद करती हैं। उदहारण के लिए हमारे यहां हाकी के बजाय अनधिकृत रूप से क्रिकेट दर्जा लिए हुए है। सो क्रिकेट का स्वरूप बदला गया है। सफेद पोशाकें रंगीन हो चुकी हैं। कंपनियों के लोगो और बिल्ले खिलाड़ियों के कपड़ों, टोपियों से लेकर जूतों तक में चमकते रहते हैं।
पेप्सी और कोका कोला (इनके देश में क्रिकेट नही खेला जाता) ने इन सफल खिलाड़ियों को अनाप-शनाप पैसा और नायकत्व प्रदान किया है। क्यों? जाहिर है इससे उन्हें अपने उत्पादों के दूर-दूर तक प्रचार और बिक्री में आसानी होती है। कुल मिलाकर कहा जाए तो इनका पूरा विज्ञापन तत्व करोड़ों दर्शकों की मानसिकता को एक खास सांचे में ढालकर अपने उत्पादों की बिक्री में इजाफा करना है।
मोटा मुनाफा कमाने के लिए क्या-क्या छल-छद्म अपनाए जाते हैं, यह इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा। १९८७ में अपनी मृत्यु तक खेल का समान बनाने वाली प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनी एडिडास के प्रमुख हार्स्ट डैसलर इंटरनैशल स्पोर्ट्स एंड लैजर के भी मालिक थे। इस छोटी कंपनी का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं था। यह कंपनी बड़े-बड़े आयोजन करने वाले संगठनों से बढ़िया संबंध बनाने का माध्यम थी, जो एडिडास के लिए महत्वपूर्ण संपर्कसूत्र थे। यानी खेलों के आयोजनों को अपने पक्ष में करने के लिए इस सेंधमार कंपनी की स्थापना की गई थी। इसी तरह १९८० के मास्को ओलंपिक के अमेरिकी बहिष्कार के पीछे राजनीतिक कारणों के अलावा यह विचार भी था कि इससे पश्चिमी मीडिया की रूची कम होने से सोवियत संघ को स्पष्टत: आर्थिक हानि होगी। लेकिन इसके बावजूद मास्को खेलों के प्रसारण अधिकार करीब ८.७ करोड़ डालर में बिके और विज्ञापनों से होने वाली आय १५ करोड़ डालर आंकी गई। जाहिर है राजनीति बाजार पर हावी नहीं हो सकी।
लेकिन खेलों के बाजारीकरण का उत्कर्ष १९९२ में चोटी पर पहुंचा, जब अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी ने ५० करोड़ डालर के प्रसारण अधिकार की पेशकश को ठुकरा दिया। ये ओलंपिक खेलों की हैसियत और अधिक लाभ कमाने की गुंजाइश को दर्शाता था। ५० करोड़ डालर की पेशकश आखिर कितने व्यापारिक संगठनों को नसीब हो पाती है। मगर ये मौका मिला ओलंपिक कमेटी को, जो कहने को तो खेलों में व्यवसायिकता के खिलाफ है और ओलंपिक के दरवाजे गैरपेशेवर खिलाड़ियों के लिए ही खोलती है, पर स्वयं आकंठ बाजारीकरण में डूब चुकी है।
खेलों के अत्यधिक व्यवसायीकरण ने खिलाड़ियो को अनुचित शोहरत पाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को मजबूर कर दिया है। हानिकारक उत्तेजक दवा स्टोरायड्स का सेवन यूं ही नहीं किया जाता। जैसे विश्वसुंदरियों का निर्माण एक भूमंडलीय उद्योग बन चुका है, वैसे ही खिलाड़ियों का उत्पादन इस उद्योग का पुरुष संस्करण है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों को महिला खेलों में कोई दिलचस्पी नहीं है। कुछ साल पहले अंग्रेजी पाक्षिक पत्रिका फ्रंटलाइन के मुताबिक खेलों की ८२ फीसदी प्रायोजक कंपनियां महिला खिलाड़ियों मे कोई दिलचस्पी नहीं रखती (जब तक की वो सानिया मिर्जा की तरह आकर्षक यानी सेक्सी न हो, उसका खेल गया भाड़ में)। खेलों की इस राजनीति और बाजारीकरण ने खिलाड़ियों की मानसिकता को भी बदल डाला है। वो एक ऐसे व्याहमोह में पड़ गए हैं जिसे किसी भी हाल में स्वस्थ मानसिकता की निशानी नहीं कहा जा सकता। एक स्तर पर इसे अपराधी मानसिकता कह सकते हैं। इस व्याहमोह की झलक आप पूर्व ब्रिटिश बाडी बिल्डिंग चैंपियन जो वारीक्क में देख सकते हैं। वो लंबे समय से गुर्दे औऱ यकृत के विकारों से पीड़ित है। उसका कहना है कि गौरव के उस क्षण के लिए वो अब भी स्टीरायड्स का सेवन करने से नहीं चुकेंगी। जाहिर है खिलाड़ियों की एक ऐसी जमात पैदा हो रही है जो "बाकायदा बीमार" अमेरिकी धावक फ्लों जिन्होंने सौ मीटर दौड़ में विश्व रिकार्ड कायम किया, मात्र पैंतीस वर्ष में चल बसी। सारी दुनिया जानती है कि उनकी असामयिक मौत का कारण मादक दवाओं के उपयोग से जुड़ा है।
अंत में ट्रैक एंड फील्ड प्रतियोगिताओं से जुड़े एक मिथक की बात कर लेते हैं। अश्वेत खिलाड़ियों के दबदबे को सारी दुनिया चकित होकर देखती है। ऐसे विकसित राष्ट्र भी अश्वेत खिलाड़ियों को उतारते हैं, जहां उनकी संख्या न के बराबर है। इसलिए इन खिलाड़ियों को तुरत-फुरत नागरिकताएं दी जाती है्ं। लेकिन इतने सारे अफ्रीकी देश हैं, वो ओलंपिक पदक तालिका से गायब क्यों रहते हैं। जाहिर है कुपोषण, बीमारी और भुखमरी जैसी समस्याओ से त्रस्त देश अनाप-शनाप पैसा किसी खिलाड़ी पर कैसे खर्च कर सकते हैं?
कुल मिलाकर हम बाजार के युग में जी रहे हैं। कार्पोरेट प्रायजकों, विज्ञापन और मार्केटिंग एजेंसियां और मीडिया जिनका भी पैसा इस खेल में लगा है, वे हर हाल में एक कृत्रिम लेकिन सहज दिखती अनिश्चितता का माहौल पैदा करते हैं। खेल को अधिक उत्तेजक और आक्रामक बनाने के लिए उसके नियमों में बदलाव किए जाते हैं।पर खेल के बाज़ार में जो कुछ भी होता है या हो रहा है वोह सिर्फ़ एक बाजार है। माल धरल्ले से बिक रहे है ,पैसा आप का निकल रहा है । शायेद यही आपकी जरूरत है|
आह दिल्ली!
राजधानी दिल्ली! जहां सुबह होते ही हर व्यक्ति किसी गुलदस्ते की तरह सज- संवर कर घर से बाहर होता है और गहराती सांझ में मुरझाया हुआ लौटता है।
दिल्ली- जहां हर व्यक्ति को अपना वजूद कायम करने और रखने के लिये किसी न किसी रूप में खपना पड़ता है। इन्हीं में कुछ ऎसे अभागे भी होते हैं जिनकी नियती जिन्दगी भर खपने रहना ही होती है और उसके खपने का सिलसिला उस दिन पूरी तरह से खत्म हो जाता है, जब उसकी जिस्म की मशीनरी पूरी तरह से जबाव दे देती है। शायद नियती पर ठिठुरता हुआ यह कर्म दिन , महीने के साथ चलता रहता है, मौसम भले ही सर्दी का हो लेकिन सुर्ख होठों से पाला सबका पडता है।
अभी पिछले दिनों की ही बात है इंडिया टीवी के एक तथाकथित बडे पत्रकार से मिलने गया था। लौटते वक्त लाल बत्ती पर मेरी गाडी खड़ी हुई थी। सड़क के किनारे सिर पर राजस्थानी पगड़ी और घुटनों तक धोती पहने एक राहगुजर को देखता हूं। उसके ठीक पीछे एक जवान औरत की शरारती आँखें हमें घूरती हैं।
सिंगनल खुलता है, मैं आगे निकल पडता हूं। शायद वह व्यक्ति मुझसे कुछ कहना चाह रहा था , यह सोचकर पार्किंग में खडा हो जाता हूँ , मेरा अनुमान ठीक निकला।
'बाबू कुछ पैसे दे दो न!'
जेब में पडे फुटकर उसके हवाले कर पूछता हूं"-'यहाँ क्या करते हो ?
अँधा बांटे रवडी, चुन चुन कर खाये वाला काम करता हूं, बाउजी।
एक दिन में कितनी रेवडी बांट लेते हो?
लेग लुगाई कर के दो तीन सौ!
यह काम तो तुम गांव में भी कर सकते थे?
ये न थी हमारी किस्मत साब?
तभी तो दिल्ली आया हूं।मैनपुरी का वाशिंदा हूं साब। नौ दस बीधा जमीन थी, छोडो साब, आप यह सब क्यों पूछ रहे हो?
चल रे चल ... वह उस औरत की ओर इशारा करता है। औरत पलट कर चल देती है ।
अरे सुनो मैं आवाज लगा देता हूं।ये कौन है तुम्हारी बीवी? मै पूछता हूं, यह सोचकर कि किसी जगह कुछ जानकार मित्रों से कह कर कहीं इसे दिहाडी पर लगवा दूंगा । लड़की अबतक सड़क के उस पार जा चुकी है।लड़की के जाते ही वह कहता है "बेटी है बाबू, ऎसी कुलखनी औलाद भगवान किसी को न दें! अविवाहित बेटी का कुंवारापन टूट जाए तो बाप के लिए गाँव में जगह कहां बचती है बाबू "? इसलिये दिल्ली आ गया हूं।
बेटी की शादी कर दी तुमने?
"अरे बाबूजी अब शादी करने से क्या फर्क पडता है?
मतलब...
इतनी कम कमाई उसपर इसके दो बच्चे भी तो है!
वह मेरा कंधा बड़े इत्मीनान से झकझोर कर कहता है,मेरी नजर में तो मेरी बिटिया आज भी कुंवारी है बाबूजी!आओ न तुम्हारे थके हुये जिम की मालिश करवा दें।
मेरी बेटी कर देगी न! महताना कुल बीस रूपए दे देना।
पीछे किसी गाडी की लंबी हार्न सुनकर मैं आगे बढ़ जाता हूं ।
देखता हूँ सडक के उसपार एक सैंद्रो कार का दरवाजा खुलता है और खटक से बंद हो जाता है।उसकी बेटी अब सड़क पर नहीहै और मेरे पास से उसका बाप भी जा चुका होता है।
अनायास मेरे दिल से निकल पड़ता है "आह दिल्ली"।
दिल्ली- जहां हर व्यक्ति को अपना वजूद कायम करने और रखने के लिये किसी न किसी रूप में खपना पड़ता है। इन्हीं में कुछ ऎसे अभागे भी होते हैं जिनकी नियती जिन्दगी भर खपने रहना ही होती है और उसके खपने का सिलसिला उस दिन पूरी तरह से खत्म हो जाता है, जब उसकी जिस्म की मशीनरी पूरी तरह से जबाव दे देती है। शायद नियती पर ठिठुरता हुआ यह कर्म दिन , महीने के साथ चलता रहता है, मौसम भले ही सर्दी का हो लेकिन सुर्ख होठों से पाला सबका पडता है।
अभी पिछले दिनों की ही बात है इंडिया टीवी के एक तथाकथित बडे पत्रकार से मिलने गया था। लौटते वक्त लाल बत्ती पर मेरी गाडी खड़ी हुई थी। सड़क के किनारे सिर पर राजस्थानी पगड़ी और घुटनों तक धोती पहने एक राहगुजर को देखता हूं। उसके ठीक पीछे एक जवान औरत की शरारती आँखें हमें घूरती हैं।
सिंगनल खुलता है, मैं आगे निकल पडता हूं। शायद वह व्यक्ति मुझसे कुछ कहना चाह रहा था , यह सोचकर पार्किंग में खडा हो जाता हूँ , मेरा अनुमान ठीक निकला।
'बाबू कुछ पैसे दे दो न!'
जेब में पडे फुटकर उसके हवाले कर पूछता हूं"-'यहाँ क्या करते हो ?
अँधा बांटे रवडी, चुन चुन कर खाये वाला काम करता हूं, बाउजी।
एक दिन में कितनी रेवडी बांट लेते हो?
लेग लुगाई कर के दो तीन सौ!
यह काम तो तुम गांव में भी कर सकते थे?
ये न थी हमारी किस्मत साब?
तभी तो दिल्ली आया हूं।मैनपुरी का वाशिंदा हूं साब। नौ दस बीधा जमीन थी, छोडो साब, आप यह सब क्यों पूछ रहे हो?
चल रे चल ... वह उस औरत की ओर इशारा करता है। औरत पलट कर चल देती है ।
अरे सुनो मैं आवाज लगा देता हूं।ये कौन है तुम्हारी बीवी? मै पूछता हूं, यह सोचकर कि किसी जगह कुछ जानकार मित्रों से कह कर कहीं इसे दिहाडी पर लगवा दूंगा । लड़की अबतक सड़क के उस पार जा चुकी है।लड़की के जाते ही वह कहता है "बेटी है बाबू, ऎसी कुलखनी औलाद भगवान किसी को न दें! अविवाहित बेटी का कुंवारापन टूट जाए तो बाप के लिए गाँव में जगह कहां बचती है बाबू "? इसलिये दिल्ली आ गया हूं।
बेटी की शादी कर दी तुमने?
"अरे बाबूजी अब शादी करने से क्या फर्क पडता है?
मतलब...
इतनी कम कमाई उसपर इसके दो बच्चे भी तो है!
वह मेरा कंधा बड़े इत्मीनान से झकझोर कर कहता है,मेरी नजर में तो मेरी बिटिया आज भी कुंवारी है बाबूजी!आओ न तुम्हारे थके हुये जिम की मालिश करवा दें।
मेरी बेटी कर देगी न! महताना कुल बीस रूपए दे देना।
पीछे किसी गाडी की लंबी हार्न सुनकर मैं आगे बढ़ जाता हूं ।
देखता हूँ सडक के उसपार एक सैंद्रो कार का दरवाजा खुलता है और खटक से बंद हो जाता है।उसकी बेटी अब सड़क पर नहीहै और मेरे पास से उसका बाप भी जा चुका होता है।
अनायास मेरे दिल से निकल पड़ता है "आह दिल्ली"।
रविवार, 13 सितंबर 2009
बात सिर्फ़ स्वाइन फ्लू पर ही क्यों ?
इसमें कोई संदेह नहीं है कि स्वाइन फ्लू एक घातक बिमारी है, लेकिन यह भी सच है कि स्वाइन फ्लू का इलाज सम्भव है और थोड़ी सी सावधानी स्वाइन से बचा सकती है. लेकिन दुनिया में कई ऐसी बिमारियाँ हैं जो स्वाइन फ्लू से कहीं घातक है, लेकिन उनकी उतनी चर्चा नहीं होती जितनी स्वाइन फ्लू की होती है.
पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में दिमागी बुखार से लगभग 40 बच्चों की मौत हो गई थी लेकिन यह खबर कभी सुर्खी नहीं बन पाई.
और अब एक नई बिमारी का पता चला है जिसे मंकी मलेरिया कहा जाता है. इस बिमारी की वजह से मलेशिया के लोगों की जान के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है. पहले यह माना जाता था कि यह बिमारी सिर्फ बंदरों को ही होती है लेकिन अब इस बिमारी से इंसानों के ग्रस्त होने के मामले सामने आ रहे हैं. और इस तरह से पाँचवें प्रकार की मलेरिया का उद्भव हुआ है. दुनिया में मलेरिया से प्रति वर्ष 10 लाख लोगों की मौत होती है. लेकिन अब मलेरिया अफ्रीका और एशिया महाखंड में रहने वाले लोगों के जीवन का एक हिस्सा बन चुकी है इसलिए इस बात की इतनी चर्चा नहीं होती. मलेरिया के विभिन्न प्रकारों में से मलेरिया फाल्सीपारम सबसे घातक होता है. लेकिन यह नई किस्म की मलेरिया जिसे पी. नोलेसी कहा गया है भी काफी घातक है. पी. नोलेसी या जिसे मंकी मलेरिया भी कहा जाता है कि किटाणुँ शरीर में हर 24 घंटें के बाद फिर से पनपते रहते हैं, और इसलिए इसलिए यह रोग काफी घातक साबित हो सकता है. अभी तक इस रोग से ग्रस्त लोगों के कम मामले ही प्रकाश में आए हैं, परंतु चिकित्सकों का मानना है कि चुँकि इसके लक्षण आप पी. मलेरिया जैसे ही होते हैं इसलिए इसे आम मलेरिया ही समझ लिया जाता है.
पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में दिमागी बुखार से लगभग 40 बच्चों की मौत हो गई थी लेकिन यह खबर कभी सुर्खी नहीं बन पाई.
और अब एक नई बिमारी का पता चला है जिसे मंकी मलेरिया कहा जाता है. इस बिमारी की वजह से मलेशिया के लोगों की जान के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है. पहले यह माना जाता था कि यह बिमारी सिर्फ बंदरों को ही होती है लेकिन अब इस बिमारी से इंसानों के ग्रस्त होने के मामले सामने आ रहे हैं. और इस तरह से पाँचवें प्रकार की मलेरिया का उद्भव हुआ है. दुनिया में मलेरिया से प्रति वर्ष 10 लाख लोगों की मौत होती है. लेकिन अब मलेरिया अफ्रीका और एशिया महाखंड में रहने वाले लोगों के जीवन का एक हिस्सा बन चुकी है इसलिए इस बात की इतनी चर्चा नहीं होती. मलेरिया के विभिन्न प्रकारों में से मलेरिया फाल्सीपारम सबसे घातक होता है. लेकिन यह नई किस्म की मलेरिया जिसे पी. नोलेसी कहा गया है भी काफी घातक है. पी. नोलेसी या जिसे मंकी मलेरिया भी कहा जाता है कि किटाणुँ शरीर में हर 24 घंटें के बाद फिर से पनपते रहते हैं, और इसलिए इसलिए यह रोग काफी घातक साबित हो सकता है. अभी तक इस रोग से ग्रस्त लोगों के कम मामले ही प्रकाश में आए हैं, परंतु चिकित्सकों का मानना है कि चुँकि इसके लक्षण आप पी. मलेरिया जैसे ही होते हैं इसलिए इसे आम मलेरिया ही समझ लिया जाता है.
रविवार, 24 मई 2009
श्रीलंका के इतिहास में जश्न
श्रीलंका सेना ने देश के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया है। करीब ३० सालों में तमिल छापामारों का दंश झेल रहे देश को मुक्ति के राह पर ला खड़ा किया है। आज श्रीलंका एक और आजादी का जश्न मना रहा है मगर इसे इत्तेफाक ही कहा जाएगा कि श्रीलंका के लिए यह सपना भारत के जिस पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी देखा था, उसकी भी २१ मई को भारत में पुण्यतिथि मनाई जा रही है। राजीव गांधी को भी श्रीलंका में शांति सेना भेजने से नाराज तमिल छापामारों के आत्मघाती दस्ते ने श्रीपेरंबदूर में विस्फोट करके २१ मई को मार डाला था। जश्न में डूबे श्रीलंकावासियों को भारतीय सेना का आभार जताने के साथ और राजीव गांधी को श्रद्धांजलि भी देनी चाहिए। जब भी श्रीलंका की मुक्ति का यह इतिहास लिखा जाएगा तब इतिहास के पन्नों में श्रीलंका में अमन के लिए अपनी जान कुर्बान करने वाने शांति सेना के जांबाजों और राजीव गांधी को भी दर्ज करना होगा। श्रीलंका की तमिल समस्या और उसके जातीय इतिहास की भारत वह कड़ी है जिसके बिना वहां से तमिल छापामारों का सफाया संभव नहीं था। श्रीलंका अब जिस मुहाने पर खड़ा है वहां से भी भारत की मदद के वगैर अमन की राह आसान नहीं होगी। इसकी एक वजह यही है अपनी जाति या संस्कृति के लिए लड़ने वाले विद्रोही अपने समाज के लिए शहीद और आदर्श होते हैं। इसी लिए शायद श्रीलंका में सारी तमिल जनता मानने को तैयार नहीं कि प्रभाकरण मारा गया है। यह तो वक्त बताएगा कि सच क्या है मगर यह ऐतिहासिक हकीकत है कि सद्दाम को खलनायक बनाकर अमेरिका ने इसका वजूद मिटा डाला मगर उसके चाहने वालों के जेहन में वह जिस तरह आज भी जिंदा है उसी तरह प्रभाकरण भी तमिलों के दिलों में बसा हुआ है। वह श्रीलंका में तमिलों पर अत्याचाक के खिलाफ लड़ रहा था।
यह अलग बात है कि इसके लिए उसने उग्रवाद का रास्ता अपनाया, जो कि गलत था और तमिलों को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया है। अब श्रीलंका के लिए अमन की अगली लड़ाई भी इतिहास वह दौर साबित होगा जिसमें फिर श्रीलंका को एक और राजीव गांधी की जरूरत पड़ेगी। और तमिलों को भी श्रीलंका में अपनी राह हथियार से नहीं बल्कि राजनीतिक समाधान के जरिए लड़नी होगी। श्रीलंका सरकार और वहां की तमिल जनता दोनों को कोशिश करनी होगी कि अब और किसी प्रभाकरण को हथियार उठाने के लिए मजबूर न होना पड़े।
आइए श्रीलंका के इतिहास में झांकते हैं कि आखिर कैसे प्रभाकरण ने हथियार उठा लिया और श्रीलंका एक भयानक जाती लड़ाई के दहाने पर जा बैठा। इस क्रम में कई जगहों से संकलित सामग्री का आप भी अवलोकन करें। तस्वीरें और कुछ सामग्री विकीपीडिया, गूगल, बीबीसी व अन्य जगहों से साभार लीश्रीलंका सेना ने देश के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया है। करीब ३० सालों में तमिल छापामारों का दंश झेल रहे देश को मुक्ति के राह पर ला खड़ा किया है। आज श्रीलंका एक और आजादी का जश्न मना रहा है मगर इसे इत्तेफाक ही कहा जाएगा कि श्रीलंका के लिए यह सपना भारत के जिस पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी देखा था, उसकी भी २१ मई को भारत में पुण्यतिथि मनाई जा रही है। राजीव गांधी को भी श्रीलंका में शांति सेना भेजने से नाराज तमिल छापामारों के आत्मघाती दस्ते ने श्रीपेरंबदूर में विस्फोट करके २१ मई को मार डाला था। जश्न में डूबे श्रीलंकावासियों को भारतीय सेना का आभार जताने के साथ और राजीव गांधी को श्रद्धांजलि भी देनी चाहिए। जब भी श्रीलंका की मुक्ति का यह इतिहास लिखा जाएगा तब इतिहास के पन्नों में श्रीलंका में अमन के लिए अपनी जान कुर्बान करने वाने शांति सेना के जांबाजों और राजीव गांधी को भी दर्ज करना होगा। श्रीलंका की तमिल समस्या और उसके जातीय इतिहास की भारत वह कड़ी है जिसके बिना वहां से तमिल छापामारों का सफाया संभव नहीं था। श्रीलंका अब जिस मुहाने पर खड़ा है वहां से भी भारत की मदद के वगैर अमन की राह आसान नहीं होगी। इसकी एक वजह यही है अपनी जाति या संस्कृति के लिए लड़ने वाले विद्रोही अपने समाज के लिए शहीद और आदर्श होते हैं। इसी लिए शायद श्रीलंका में सारी तमिल जनता मानने को तैयार नहीं कि प्रभाकरण मारा गया है। यह तो वक्त बताएगा कि सच क्या है मगर यह ऐतिहासिक हकीकत है कि सद्दाम को खलनायक बनाकर अमेरिका ने इसका वजूद मिटा डाला मगर उसके चाहने वालों के जेहन में वह जिस तरह आज भी जिंदा है उसी तरह प्रभाकरण भी तमिलों के दिलों में बसा हुआ है। वह श्रीलंका में तमिलों पर अत्याचाक के खिलाफ लड़ रहा था। यह अलग बात है कि इसके लिए उसने उग्रवाद का रास्ता अपनाया, जो कि गलत था और तमिलों को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया है। अब श्रीलंका के लिए अमन की अगली लड़ाई भी इतिहास वह दौर साबित होगा जिसमें फिर श्रीलंका को एक और राजीव गांधी की जरूरत पड़ेगी। और तमिलों को भी श्रीलंका में अपनी राह हथियार से नहीं बल्कि राजनीतिक समाधान के जरिए लड़नी होगी। श्रीलंका सरकार और वहां की तमिल जनता दोनों को कोशिश करनी होगी कि अब और किसी प्रभाकरण को हथियार उठाने के लिए मजबूर न होना पड़े।
यह अलग बात है कि इसके लिए उसने उग्रवाद का रास्ता अपनाया, जो कि गलत था और तमिलों को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया है। अब श्रीलंका के लिए अमन की अगली लड़ाई भी इतिहास वह दौर साबित होगा जिसमें फिर श्रीलंका को एक और राजीव गांधी की जरूरत पड़ेगी। और तमिलों को भी श्रीलंका में अपनी राह हथियार से नहीं बल्कि राजनीतिक समाधान के जरिए लड़नी होगी। श्रीलंका सरकार और वहां की तमिल जनता दोनों को कोशिश करनी होगी कि अब और किसी प्रभाकरण को हथियार उठाने के लिए मजबूर न होना पड़े।
आइए श्रीलंका के इतिहास में झांकते हैं कि आखिर कैसे प्रभाकरण ने हथियार उठा लिया और श्रीलंका एक भयानक जाती लड़ाई के दहाने पर जा बैठा। इस क्रम में कई जगहों से संकलित सामग्री का आप भी अवलोकन करें। तस्वीरें और कुछ सामग्री विकीपीडिया, गूगल, बीबीसी व अन्य जगहों से साभार लीश्रीलंका सेना ने देश के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया है। करीब ३० सालों में तमिल छापामारों का दंश झेल रहे देश को मुक्ति के राह पर ला खड़ा किया है। आज श्रीलंका एक और आजादी का जश्न मना रहा है मगर इसे इत्तेफाक ही कहा जाएगा कि श्रीलंका के लिए यह सपना भारत के जिस पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी देखा था, उसकी भी २१ मई को भारत में पुण्यतिथि मनाई जा रही है। राजीव गांधी को भी श्रीलंका में शांति सेना भेजने से नाराज तमिल छापामारों के आत्मघाती दस्ते ने श्रीपेरंबदूर में विस्फोट करके २१ मई को मार डाला था। जश्न में डूबे श्रीलंकावासियों को भारतीय सेना का आभार जताने के साथ और राजीव गांधी को श्रद्धांजलि भी देनी चाहिए। जब भी श्रीलंका की मुक्ति का यह इतिहास लिखा जाएगा तब इतिहास के पन्नों में श्रीलंका में अमन के लिए अपनी जान कुर्बान करने वाने शांति सेना के जांबाजों और राजीव गांधी को भी दर्ज करना होगा। श्रीलंका की तमिल समस्या और उसके जातीय इतिहास की भारत वह कड़ी है जिसके बिना वहां से तमिल छापामारों का सफाया संभव नहीं था। श्रीलंका अब जिस मुहाने पर खड़ा है वहां से भी भारत की मदद के वगैर अमन की राह आसान नहीं होगी। इसकी एक वजह यही है अपनी जाति या संस्कृति के लिए लड़ने वाले विद्रोही अपने समाज के लिए शहीद और आदर्श होते हैं। इसी लिए शायद श्रीलंका में सारी तमिल जनता मानने को तैयार नहीं कि प्रभाकरण मारा गया है। यह तो वक्त बताएगा कि सच क्या है मगर यह ऐतिहासिक हकीकत है कि सद्दाम को खलनायक बनाकर अमेरिका ने इसका वजूद मिटा डाला मगर उसके चाहने वालों के जेहन में वह जिस तरह आज भी जिंदा है उसी तरह प्रभाकरण भी तमिलों के दिलों में बसा हुआ है। वह श्रीलंका में तमिलों पर अत्याचाक के खिलाफ लड़ रहा था। यह अलग बात है कि इसके लिए उसने उग्रवाद का रास्ता अपनाया, जो कि गलत था और तमिलों को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया है। अब श्रीलंका के लिए अमन की अगली लड़ाई भी इतिहास वह दौर साबित होगा जिसमें फिर श्रीलंका को एक और राजीव गांधी की जरूरत पड़ेगी। और तमिलों को भी श्रीलंका में अपनी राह हथियार से नहीं बल्कि राजनीतिक समाधान के जरिए लड़नी होगी। श्रीलंका सरकार और वहां की तमिल जनता दोनों को कोशिश करनी होगी कि अब और किसी प्रभाकरण को हथियार उठाने के लिए मजबूर न होना पड़े।
अंको और गिनती की कहानी!
कभी आपने सोचा भी है कि गिनती की शुरुआत कब, क्यों और कैसे हुई? मानव आरंभ से ही सामाजिक प्राणी रहा है। प्रगैतिहासिक काल में जब मानव गुफाओं में रहा करता था तब भी उनके समूह हुआ करते थे। जब तक ये समूह छोटे रहे, किसी प्रकार की गिनती की आवश्यकता नहीं थी। दिन भर भोजन की टोह में इधर-उधर भटकने के बाद जब समूह के सदस्य वापस इकट्ठे होते थे तो समूह के सरदार को आभास हो जाया करता था कि पूरे सदस्य आ गये हैं या कोई सदस्य कम है।
किन्तु जब समूह के सदस्यों की संख्या में वृद्धि होने लगी तो मानवीय आभास से काम चलाना मुश्किल हो गया और उन्हें गिनती की आवश्यकता हुई। सर्वप्रथम मनुष्यों ने अपने हाथों की उंगलियों को गिनती का आधार बनाया। बाद में सदस्यों की संख्या में और वृद्धि होने पर पैरो की उंगलियों को भी गिनती में शामिल कर लिया। संख्या में निरंतर वृद्धि के कारण उन्हें अंकों तथा संख्याओं के लिये संकेत बनाने पड़े।
आज भी उस प्रकार के संकेतों का प्रयोग किया जाता है जैसे कि I, II...., V...., X...., L...., C...., आदि। अब यदि देखें तो इन संकेतों का आधार पाँच का अंक है जैसे V, X, L, C। मनुष्य के एक हाथ में पाँच उंगलियाँ होने के कारण ही पाँच को अंको और संख्याओं का आधार बनाया गया। शून्य की जानकारी न होने के कारण इन्हीं संकेतों के द्वारा हजारों-लाखों वर्षों तक गणितीय गणना की जाती रही है। अब जरा सोचिये कितनी कठिन और समयखाऊ रहती रही होंगी वे गणनायें। यकीन नहीं आता हो तो आप ही जरा नीचे के प्रश्न को हल करके देखेः
जोड़ें -
III
VII
IX
I
+ LXIV
यह तो हुआ जोड़ का एक साधारण सा सवाल। जब जोड़ का ये साधारण सवाल इतना कठिन सा लग रहा है तो गुणा भाग आदि के सवाल कितने कठिन तथा समयखाऊ रहे होंगे। फेर भी हजारों लाखों वर्षों तक इन्हीं संकेतों के सहारे गणनायें की जाती रही है।
फिर शून्य का अविष्कार हुआ। हमारे लिये जहाँ यह गौरव की बात है कि शून्य भारत की ही देन है वहीं यह क्षोभ की बात है कि हम आज तक उस महान गणितज्ञ का नाम भी नहीं जानते जिन्होंने शून्य का अविष्कार किया। कहा जाता है कि शून्य का अविष्कार नवीं शताब्दी में हुआ था। उस काल में हिन्दु धर्म के मुख्य रूप से तीन सम्प्रदाय, वैष्णव, शैव और शाक्त, हुआ करते थे। इन तीनों सम्प्रदायों के अनुयायी स्वयं के सम्प्रदाय को महान तथा अन्य सम्प्रदायों को तुच्छ मानकर आपस में झगड़ा किया करते थे। उसी समय जैन सम्प्रदाय का जन्म हुआ। इस नये प्रतियोगी को नीचा दिखाने के लिये पहले के तीनों सम्प्रदाय एक हो गये। अनुमान है कि शून्य का आविष्कार करने वाला गणितज्ञ जैन सम्प्रदाय का अनुयायी था और इसीलिये उनके नाम को कभी भी आगे आने नहीं दिया गया।
लोगों को शून्य का प्रयोग करके गणितीय गणना करना बहुत सरल लगा और शून्य का प्रयोग जोरों से किया जाने लगा। किन्तु शासक के जैन सम्प्रदाय विरोधी होने के कारण शून्य के प्रयोग को राजकीय रूप से मान्यता नहीं दी गई। व्यापारियों को अपने हिसाब-किताब पुरानी पद्धति में ही रखने के राजकीय आदेश दिये गये। अतः एक परपाटी यह चल गई कि कच्चे में शून्य का प्रयोग करके हिसाब किया जाये और पक्के में पुरानी पद्धति से लिखा जाये। चूँकि लिखने का काम भोज पत्र पर हुआ करता था अतः भोज पत्र की खपत कम करने के लिये कच्चे में हिसाब करने के लिये जमीन के एक टुकड़े को लिप पोत कर चिकना बना दिया जाता था और उस पर महीन राख की परत बिछा दी जाती थी। उंगलियों से लिखकर हिसाब किया जाता था। पक्के में पुरानी पद्धति में उतार लेने के बाद जमीन में बनाई गई राख की स्लेट को फिर से लिखने लायक बना लिया जाता था।
उस काल में व्यापार करने के लिये भारत में अरब देशों के व्यापारी आया करते थे। शून्य का प्रयोग करके गणना करने की सरलता ने उन्हें अत्यधिक प्रभावित किया और वे हमारे अंको को अपने देश ले गये। चूँकि राख को अरबी भाषा में गुबार कहा जाता है, उन्होंने यहाँ से ले जाये गये अंको का नाम गुबार अंक रखा। गुबार अंक अरब देशों से मिश्र पहुँच गया। इस प्रकार आगे बढते-बढते हमारे ये अंक अलग-अलग नामों तथा संकेतों के साथ पूरे यूरोप में पहुँच गये। कालान्तर में जब अंग्रेजों ने भारत के शासन को हथिया लिया, तब हमारे यही अंक अंग्रेजी अंको के रूप में हमारे सामने आये।
बाद में गणितज्ञों के शोध कार्यों से सिद्ध हो गया कि अंग्रेजी अंक वास्तव में अंग्रेजी न होकर भारतीय है।
किन्तु जब समूह के सदस्यों की संख्या में वृद्धि होने लगी तो मानवीय आभास से काम चलाना मुश्किल हो गया और उन्हें गिनती की आवश्यकता हुई। सर्वप्रथम मनुष्यों ने अपने हाथों की उंगलियों को गिनती का आधार बनाया। बाद में सदस्यों की संख्या में और वृद्धि होने पर पैरो की उंगलियों को भी गिनती में शामिल कर लिया। संख्या में निरंतर वृद्धि के कारण उन्हें अंकों तथा संख्याओं के लिये संकेत बनाने पड़े।
आज भी उस प्रकार के संकेतों का प्रयोग किया जाता है जैसे कि I, II...., V...., X...., L...., C...., आदि। अब यदि देखें तो इन संकेतों का आधार पाँच का अंक है जैसे V, X, L, C। मनुष्य के एक हाथ में पाँच उंगलियाँ होने के कारण ही पाँच को अंको और संख्याओं का आधार बनाया गया। शून्य की जानकारी न होने के कारण इन्हीं संकेतों के द्वारा हजारों-लाखों वर्षों तक गणितीय गणना की जाती रही है। अब जरा सोचिये कितनी कठिन और समयखाऊ रहती रही होंगी वे गणनायें। यकीन नहीं आता हो तो आप ही जरा नीचे के प्रश्न को हल करके देखेः
जोड़ें -
III
VII
IX
I
+ LXIV
यह तो हुआ जोड़ का एक साधारण सा सवाल। जब जोड़ का ये साधारण सवाल इतना कठिन सा लग रहा है तो गुणा भाग आदि के सवाल कितने कठिन तथा समयखाऊ रहे होंगे। फेर भी हजारों लाखों वर्षों तक इन्हीं संकेतों के सहारे गणनायें की जाती रही है।
फिर शून्य का अविष्कार हुआ। हमारे लिये जहाँ यह गौरव की बात है कि शून्य भारत की ही देन है वहीं यह क्षोभ की बात है कि हम आज तक उस महान गणितज्ञ का नाम भी नहीं जानते जिन्होंने शून्य का अविष्कार किया। कहा जाता है कि शून्य का अविष्कार नवीं शताब्दी में हुआ था। उस काल में हिन्दु धर्म के मुख्य रूप से तीन सम्प्रदाय, वैष्णव, शैव और शाक्त, हुआ करते थे। इन तीनों सम्प्रदायों के अनुयायी स्वयं के सम्प्रदाय को महान तथा अन्य सम्प्रदायों को तुच्छ मानकर आपस में झगड़ा किया करते थे। उसी समय जैन सम्प्रदाय का जन्म हुआ। इस नये प्रतियोगी को नीचा दिखाने के लिये पहले के तीनों सम्प्रदाय एक हो गये। अनुमान है कि शून्य का आविष्कार करने वाला गणितज्ञ जैन सम्प्रदाय का अनुयायी था और इसीलिये उनके नाम को कभी भी आगे आने नहीं दिया गया।
लोगों को शून्य का प्रयोग करके गणितीय गणना करना बहुत सरल लगा और शून्य का प्रयोग जोरों से किया जाने लगा। किन्तु शासक के जैन सम्प्रदाय विरोधी होने के कारण शून्य के प्रयोग को राजकीय रूप से मान्यता नहीं दी गई। व्यापारियों को अपने हिसाब-किताब पुरानी पद्धति में ही रखने के राजकीय आदेश दिये गये। अतः एक परपाटी यह चल गई कि कच्चे में शून्य का प्रयोग करके हिसाब किया जाये और पक्के में पुरानी पद्धति से लिखा जाये। चूँकि लिखने का काम भोज पत्र पर हुआ करता था अतः भोज पत्र की खपत कम करने के लिये कच्चे में हिसाब करने के लिये जमीन के एक टुकड़े को लिप पोत कर चिकना बना दिया जाता था और उस पर महीन राख की परत बिछा दी जाती थी। उंगलियों से लिखकर हिसाब किया जाता था। पक्के में पुरानी पद्धति में उतार लेने के बाद जमीन में बनाई गई राख की स्लेट को फिर से लिखने लायक बना लिया जाता था।
उस काल में व्यापार करने के लिये भारत में अरब देशों के व्यापारी आया करते थे। शून्य का प्रयोग करके गणना करने की सरलता ने उन्हें अत्यधिक प्रभावित किया और वे हमारे अंको को अपने देश ले गये। चूँकि राख को अरबी भाषा में गुबार कहा जाता है, उन्होंने यहाँ से ले जाये गये अंको का नाम गुबार अंक रखा। गुबार अंक अरब देशों से मिश्र पहुँच गया। इस प्रकार आगे बढते-बढते हमारे ये अंक अलग-अलग नामों तथा संकेतों के साथ पूरे यूरोप में पहुँच गये। कालान्तर में जब अंग्रेजों ने भारत के शासन को हथिया लिया, तब हमारे यही अंक अंग्रेजी अंको के रूप में हमारे सामने आये।
बाद में गणितज्ञों के शोध कार्यों से सिद्ध हो गया कि अंग्रेजी अंक वास्तव में अंग्रेजी न होकर भारतीय है।
सोमवार, 13 अप्रैल 2009
भाजपा
भारत के राजनीतिक पटल पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उदय का इतिहास आज़ादी के पूर्व में जाता है, जब वर्ष 1925 में डॉक्टर हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) का गठन किया.
आरएसएस का गठन स्वयंसेवी संगठन के रूप में हुआ लेकिन इसकी छवि कट्टरपंथी हिंदू संगठन के रूप में उभरी.
जनवरी, 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद कई लोगों ने इसके लिए आरएसएस और इसकी सोच को ज़िम्मेदार ठहराया.
तत्कालीन राजनीतिक स्थिति को देखते हुए संघ परिवार ने राजनीतिक शाखा के तौर पर वर्ष 1951 में भारतीय जन संघ का गठन किया.
डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी इसके नेता बने. इसी साल हुए पहले आम चुनाव में जन संघ को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिल गया.
पहला दशक
गठन के पहले दशक में जन संघ ने अपने संगठन और अपनी विचारधारा को मज़बूत बनाने पर ज़ोर दिया. उसने कश्मीर, कच्छ और बेरुबारी को भारत का अभिन्न अंग घोषित करने का मुद्दा उठाया. साथ ही ज़मींदारी और जागीरदारी प्रथा का भी विरोध किया.
वर्ष 1967 में राजनीतिक ताकत के रूप में जन संघ ने अपनी उपस्थिति का एहसास कराया. इस वर्ष पहली बार कांग्रेस का वर्चस्व टूटता दिखा और कई राज्यों में उसकी हार हुई.
जन संघ और वामपंथियों ने मिल कर कई राज्यों में सरकार बनाई. इसी दौरान पंडित दीन दयाल उपाध्याय की अगुआई में जन संघ ने कालीकट सम्मेलन में भाषा नीति घोषित की और सभी भारतीय भाषाओं को सम्मान देने की बात कही.
हालाँकि इसके कुछ ही दिनों बाद पंडित दीन दयाल उपाध्याय मुग़लसराय रेलवे स्टेशन पर मृत पाए गए.
वाजपेयी को कमान
वर्ष 1971 के लोकसभा चुनाव से पहले वाजपेयी को जन संघ की कमान मिली. उन्होंने चुनावी घोषणापत्र में गरीबी पर चोट का नारा दिया लेकिन चुनावों में उसे कोई ख़ास सफलता नहीं मिल सकी.
तब इंदिरा गांधी की अगुआई में कांग्रेस की सरकार बनी. लेकिन कुछ वर्षों बाद ही इंदिरा सरकार पर भ्रष्टाचार और तानाशाही के आरोप लगने लगे. जय प्रकाश नारायण ने इसके ख़िलाफ़ मुहिम चलाई और जन संघ भी इसमें शरीक हुआ.
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने वर्ष 1975 में देश में आपात काल की घोषणा कर दी जिसका व्यापक विरोध हुआ. नतीजा 1977 के चुनावों में देखने को मिला. कांग्रेस की हार हुई और जनता पार्टी के नेतृत्व में गठबंधन सरकार बनी जिसमें जन संघ भी शामिल था.
लेकिन भारतीय राजनीति का ये पहला प्रयोग विफ़ल हो गया और दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर गठबंधन टूट गया. मध्यावधि चुनाव हुए जिसमें इंदिरा की अगुआई में कांग्रेस फिर सत्ता पर काबिज हो गई.
भाजपा का गठन
राज नारायण और मधु लिमये जैसे समाजवादियों ने जनता पार्टी और आरएसएस दोनों की सदस्यता रखने का विरोध किया. इससे जनता पार्टी में बिखराव हुआ. वर्ष 1980 में जन संघ ने अपने को पुनर्गठित किया. जनता पार्टी में शामिल इसके नेता एक मंच पर आए. नई पार्टी का जन्म हुआ और इसका नाम भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) रखा गया. 1984 के चुनावों में इसे दो सीटें मिलीं.
लेकिन वर्ष 1989 में जनता दल के साथ सीटों के तालमेल से इसे 89 सीटें मिलीं. हालाँकि मंडल आयोग की रिपोर्ट को लेकर मतभेदों के बाद भाजपा ने सरकार से हटने का फ़ैसला किया.
इसके बाद 1990 में भाजपा ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर आंदोलन तेज़ कर दिया. पार्टी के नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने रथ यात्रा शुरू की जिससे पार्टी को काफी लोकप्रियता मिली.
1991 के चुनावों में पार्टी ने 120 सीटों पर सफलता हासिल की. हालाँकि 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद उस पर सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा देने के आरोप लगे और चार राज्यों में उसकी सराकरें बर्ख़ास्त कर दी गईं.
दिल्ली में दस्तक
दिल्ली में भाजपा की पहली सरकार वर्ष 1996 में बनी लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी सबसे कम दिनों के प्रधानमंत्री साबित हुए. वो बहुमत नहीं जुटा सके और महज 13 दिनों में सरकार गिर गई. 96 के चुनावों में पार्टी को 161 सीटें मिली थीं.
इसके बाद 1998 में पार्टी ने 182 सीटें हासिल की. इसी समय राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए का स्वरूप सामने आया. सरकार में समता पार्टी, अन्नाद्रमुक, शिव सेना, अकाली दल और बीजू जनता दल शामिल हुई. तेलुगूदेशम पार्टी ने इसे बाहर से समर्थन दिया.
लेकिन ये सरकार भी 13 महीने ही चल सकी और अन्नाद्रमुक के समर्थन वापस लेने से सरकार गिर गई.
लेकिन ठीक एक साल बाद हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा की अगुआई में एनडीए फिर सत्ता में आई और वाजपेयी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने. ये सरकार पूरे पाँच साल चली लेकिन वर्ष 2004 में हुए लोकसभा चुनाव में सत्ता की चाबी फिर कांग्रेस के हाथों में गई.
आरएसएस का गठन स्वयंसेवी संगठन के रूप में हुआ लेकिन इसकी छवि कट्टरपंथी हिंदू संगठन के रूप में उभरी.
जनवरी, 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद कई लोगों ने इसके लिए आरएसएस और इसकी सोच को ज़िम्मेदार ठहराया.
तत्कालीन राजनीतिक स्थिति को देखते हुए संघ परिवार ने राजनीतिक शाखा के तौर पर वर्ष 1951 में भारतीय जन संघ का गठन किया.
डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी इसके नेता बने. इसी साल हुए पहले आम चुनाव में जन संघ को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिल गया.
पहला दशक
गठन के पहले दशक में जन संघ ने अपने संगठन और अपनी विचारधारा को मज़बूत बनाने पर ज़ोर दिया. उसने कश्मीर, कच्छ और बेरुबारी को भारत का अभिन्न अंग घोषित करने का मुद्दा उठाया. साथ ही ज़मींदारी और जागीरदारी प्रथा का भी विरोध किया.
वर्ष 1967 में राजनीतिक ताकत के रूप में जन संघ ने अपनी उपस्थिति का एहसास कराया. इस वर्ष पहली बार कांग्रेस का वर्चस्व टूटता दिखा और कई राज्यों में उसकी हार हुई.
जन संघ और वामपंथियों ने मिल कर कई राज्यों में सरकार बनाई. इसी दौरान पंडित दीन दयाल उपाध्याय की अगुआई में जन संघ ने कालीकट सम्मेलन में भाषा नीति घोषित की और सभी भारतीय भाषाओं को सम्मान देने की बात कही.
हालाँकि इसके कुछ ही दिनों बाद पंडित दीन दयाल उपाध्याय मुग़लसराय रेलवे स्टेशन पर मृत पाए गए.
वाजपेयी को कमान
वर्ष 1971 के लोकसभा चुनाव से पहले वाजपेयी को जन संघ की कमान मिली. उन्होंने चुनावी घोषणापत्र में गरीबी पर चोट का नारा दिया लेकिन चुनावों में उसे कोई ख़ास सफलता नहीं मिल सकी.
तब इंदिरा गांधी की अगुआई में कांग्रेस की सरकार बनी. लेकिन कुछ वर्षों बाद ही इंदिरा सरकार पर भ्रष्टाचार और तानाशाही के आरोप लगने लगे. जय प्रकाश नारायण ने इसके ख़िलाफ़ मुहिम चलाई और जन संघ भी इसमें शरीक हुआ.
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने वर्ष 1975 में देश में आपात काल की घोषणा कर दी जिसका व्यापक विरोध हुआ. नतीजा 1977 के चुनावों में देखने को मिला. कांग्रेस की हार हुई और जनता पार्टी के नेतृत्व में गठबंधन सरकार बनी जिसमें जन संघ भी शामिल था.
लेकिन भारतीय राजनीति का ये पहला प्रयोग विफ़ल हो गया और दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर गठबंधन टूट गया. मध्यावधि चुनाव हुए जिसमें इंदिरा की अगुआई में कांग्रेस फिर सत्ता पर काबिज हो गई.
भाजपा का गठन
राज नारायण और मधु लिमये जैसे समाजवादियों ने जनता पार्टी और आरएसएस दोनों की सदस्यता रखने का विरोध किया. इससे जनता पार्टी में बिखराव हुआ. वर्ष 1980 में जन संघ ने अपने को पुनर्गठित किया. जनता पार्टी में शामिल इसके नेता एक मंच पर आए. नई पार्टी का जन्म हुआ और इसका नाम भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) रखा गया. 1984 के चुनावों में इसे दो सीटें मिलीं.
लेकिन वर्ष 1989 में जनता दल के साथ सीटों के तालमेल से इसे 89 सीटें मिलीं. हालाँकि मंडल आयोग की रिपोर्ट को लेकर मतभेदों के बाद भाजपा ने सरकार से हटने का फ़ैसला किया.
इसके बाद 1990 में भाजपा ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर आंदोलन तेज़ कर दिया. पार्टी के नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने रथ यात्रा शुरू की जिससे पार्टी को काफी लोकप्रियता मिली.
1991 के चुनावों में पार्टी ने 120 सीटों पर सफलता हासिल की. हालाँकि 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद उस पर सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा देने के आरोप लगे और चार राज्यों में उसकी सराकरें बर्ख़ास्त कर दी गईं.
दिल्ली में दस्तक
दिल्ली में भाजपा की पहली सरकार वर्ष 1996 में बनी लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी सबसे कम दिनों के प्रधानमंत्री साबित हुए. वो बहुमत नहीं जुटा सके और महज 13 दिनों में सरकार गिर गई. 96 के चुनावों में पार्टी को 161 सीटें मिली थीं.
इसके बाद 1998 में पार्टी ने 182 सीटें हासिल की. इसी समय राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए का स्वरूप सामने आया. सरकार में समता पार्टी, अन्नाद्रमुक, शिव सेना, अकाली दल और बीजू जनता दल शामिल हुई. तेलुगूदेशम पार्टी ने इसे बाहर से समर्थन दिया.
लेकिन ये सरकार भी 13 महीने ही चल सकी और अन्नाद्रमुक के समर्थन वापस लेने से सरकार गिर गई.
लेकिन ठीक एक साल बाद हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा की अगुआई में एनडीए फिर सत्ता में आई और वाजपेयी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने. ये सरकार पूरे पाँच साल चली लेकिन वर्ष 2004 में हुए लोकसभा चुनाव में सत्ता की चाबी फिर कांग्रेस के हाथों में गई.
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