रविवार, 25 जनवरी 2009

शायद अभी समय लगेगा खोया आत्मविश्वास पाने में

गत शनिवार के The Economic Times मुख पृष्ठ पर खबर थी कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 200 अरब डॉलर को पार चुका है. आपको ज्ञात होगा कि 2003 में पहली बार भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 100 अरब डॉलर तक पहुँचा था, और इन चार साल में बढकर दुगना हो गया है. हाँलाकि अभी भी भारत विदेशी मुद्रा भंडार के मामले में विश्व की बढ रही अर्थव्यवस्थाओं में सातवें नम्बर पर आता है. चीन निसन्देह भारत से काफी आगे है जिसका विदेशी मुद्रा भंडार भारत से कहीं अधिक है. चीन इस मामले में सिर्फ जापान से पीछे है. इसके बाद रशिया, होंगकॉंग, ताइवान और कोरिया आते हैं. लेकिन फिर भी भारत का विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से बढ रहा है. कुछ साल पहले तक तो इसकी कल्पना करना भी हास्यास्पद लग सकता था. आज से 15 साल पहले भारत का विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खाली हो चुका था और देश के पास सिर्फ हफ्ते भर तक निर्यात किया जा सके इतना ही पैसा बचा था (स्रोत : The Economic Times ). लेकिन फिर नरसिंह राव सरकार के द्वारा शुरू किए गए आर्थिक उदारीकरण ने देश की अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर ला दिया. उनके और मनमोहन सिंह के उस समय के इस दुस्साहसी कदम को देश हमेंशा याद रखेगा. नरसिंह राव ऐसा काम कर गए थे जो उनके आने वाले उत्तराधिकारीयों के लिए वापस खींचना सम्भव ही नहीं था. और आर्थिक उदारीकरण का वह दौर आज भी जारी है. ऐसे कई मुद्दे हैं जिन पर चर्चा हो सकती है. चर्चा इस बात पर भी हो सकती है कि आर्थिक उदारीकरण का लाभ क्या समाज के एक विशेष तबके को ही मिल रहा है? क्या अमीर और गरीब के बीच की खाई बढती ही जा रही है और अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब हो रहे है. या गरीबों की स्थिति सुधर रही है. यह बहस शायद अंतहीन साबित हो, पर देश की आर्थिक स्थिति और इस वजह से देश की दुनिया में साख पहले से काफी बेहतर है इसे शायद सभी स्विकार करेंगे. यह बात अलग है कि हमारे नेता इस स्थिति का फायदा देश को पहुँचाने में विफल रहे हैं. क्योंकि हम आज भी खुद से कहीं कमजोर देशों के आगे हाथ फैलाते से दिखते हैं. दो हजार वर्षों की गुलामी ने हमारे डी.एन.ए. बिगाड दिए हैं. शायद अभी समय लगेगा खोया आत्मविश्वास पाने में.

कोई टिप्पणी नहीं: